SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३२३ है' और नवें स्थान में नौ लोकान्तिक देवों की चर्चा है । इसका तात्पर्य यह भी है कि लोकान्तिक देवों की नौ की संख्या एक परवर्ती विकास है। जब नौ की संख्या मान्य हो गई तो किसी श्वेताम्बर आचार्य ने तत्त्वार्थ के मूलपाठ में भो मरुत नाम जोड़ दिया और इस प्रकार तत्त्वार्थ मूल और तत्त्वार्थभाष्य में अन्तर आ गया । तत्त्वार्थसत्र मूल में यह प्रक्षेप तत्त्वार्थभाष्य की रचना के बाद और सिद्धसेन गणि की तत्त्वार्थभाष्य की टीका के पूर्व किया गया होगा। किन्तु इस सबसे यह सिद्ध नहीं होता है कि भाष्य श्वेताम्बरमान्य आगमों के विरूद्ध है। यदि संख्या के भेद के आधार पर हो आगम विरोध माना जाये फिर तिलोयपण्णत्ति, सर्वार्थसिद्धि और राजवातिक में ही लोकान्तिक देवों की २४ संख्या भी मानी गई। फिर तो दिगम्बर परम्परा से भी तत्वार्थसत्र की भिन्नता सिद्ध हो जायेगी । आश्चर्य यह है कि जो 'मरुत' नाम प्रक्षिप्त माना जाता है, उसका उल्लेख तिलोयपण्णत्ति और राजवार्तिक में भी उपस्थित है। इससे भाष्य की सर्वार्थसिद्धि से प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि लोकान्तिक देवों की अवधारणा में एक विकास हुआ है और सर्वार्थसिद्धि भाष्य को अपेक्षा विकास की सूचक है। तिलोयपण्णत्ति में लोकविभाग के कर्ता का प्राचीन मत भी उल्लिखित है (८/६३५-६३९) । इसमें नौ लोकांतिक देवों की अवधारणा का संकेत है; क्योंकि इसमें वह्नि के अतिरिक्त आग्नेय नाम अधिक मिलता है। (ज्ञातव्य है कि वर्तमान संस्कृत लोकविभाग-प्राचीन प्राकृत 'लोयविभाय' के आधार पर निर्मित है)। इसका संकेत संस्कृत लोकविभाग की भूमिका में बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने किया है (देखें भूमिका, पृ० ३१) तथा मूल में भी यह संख्या ९ ही वर्णित है ( श्लोक १०॥३१९ ) ज्ञातव्य हैआग्नेय (अगिच्चा) यही नाम श्वेताम्बर आगम (स्थानांग ८।४६, ९।३४) १. ऐतेसु णं अट्टसु लोगंतियविमाणेसु अट्टविधा लोगंतिया देवापण्णत्ता तं जहा सारस्सतमाइच्चा वह्नीवरूणा य गहतोया य । तुसिता अन्वावाहा अगिच्चा चेव बोद्धव्वा ॥ -स्थानांग-सं० मधुकर मुनि, ८१४६ २. णव देवणिकाया पण्णत्ता तं जहा सारस्सयमाइच्चा वण्हीवरूणा य गद्दतोया य । तुसिया अव्वाबाहा अगिच्चा चेव रिट्ठा य ॥ -स्थानांग सं० मधुकर मुनि ९।३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy