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१८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय पांचवी शताब्दी के अभिलेख में ही मिलता है,' यद्यपि उत्तर भारत में इससे पूर्व भी यह सम्प्रदाय अपनी जड़ें जमा चुका था। किन्तु यह किस नाम से अभिहित होता था, इसका कोई स्पष्ट संकेत उपलब्ध नहीं होता है। उत्तर भारत में हरिभद्र के ग्रन्थ श्री ललितविस्तरा (लगभग आठवीं शती पूर्वार्द्ध) में सर्वप्रथम 'यापनीय' नाम मिलता है । इसके पूर्व के उत्तरभारत में न तो अभिलेखों में और न ही साहित्यिक ग्रन्थों में यापनीयों का उल्लेख है। यह निश्चित है कि इस सम्प्रदाय को इसके पूर्व श्वेताम्बर बोटिक (बोडिय) कह रहे थे, किन्तु यह अपने को किस नाम से अभिहित करता था, इसका पता नहीं चलता है । जो संकेतसूत्र उपलब्ध हैं, उनसे मात्र कुछ सम्भावनाएं प्रकट की जा सकती हैं, निश्चित रूप में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।
सर्वप्रथम कल्पसूत्र, स्थानाङ्ग आदि आगम ग्रन्थों में और मथुरा के अभिलेखों में जिन गण, शाखा, कुल, सम्भोग आदि का उल्लेख है, वे श्वेताम्बर और यापनीय दोनों के पूर्वज तो माने जा सकते हैं, किन्तु इनके आधार पर यह बता पाना कठिन है कि यापनीय प्रारम्भ में अपनी पृथक्ता को किस रूप में सूचित करते थे। इस सम्बन्ध में मात्र पभोसा, विदिशा और पहाड़पूर के अभिलेखों पर विचार करना होगा। पभोसा के अभिलेख में काश्यपीय अर्हतों का उल्लेख आया है। प्रश्न उठता है 'कि ये काश्यपीय अर्हत् कौन थे ? कल्पसूत्र स्थविरावली में काश्यपीय शाखा के सम्बन्ध में एक उल्लेख मिलता है । यह तो निश्चित है कि काश्यपगोत्रीय किसी धर्माचार्य के शिष्य ही 'काश्यपीय अर्हत्' कहे जाते होंगे। इस सम्बन्ध में तीन संभावनाएं हो सकती हैं
(१) भगवान महावीर के काश्यपगोत्रीय होने से उनकी शिष्य परम्परा अपने को काश्यपीय अर्हत् कहती हो।
(२) कल्पसूत्र स्थविरावली में आचार्य भद्रबाहु के शिष्य 'गोदास' को काश्यप गोत्रीय कहा गया है अतः उनको शिष्य परम्परा भी अपने को काश्यपोय अर्हत् के नाम से अभिहित करती हो।
(३) आर्य शिवभूति और आर्यकृष्ण जिनके मध्य वस्त्र-पात्र का विवाद हुआ था-के परवर्ती तीन आचार्यों आर्यभद्र, आर्यनक्षत्र और १. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, अभिलेख सं० १०२-१०३ । २. वहो, अभिलेख सं० ६-७ ३. कल्पसूत्र २१५.
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