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________________ विषय-प्रवेश : १९ आर्यरक्ष (सम्भवतः आर्यरक्षित) को भी कल्पसूत्र स्थविरावली में काश्यप गोत्रीय कहा गया है, अतः इनको शिष्य परम्परा भी काश्यपीय अर्हत् कहलाती हो। प्रथम और द्वितोय विकल्प इसलिए निरस्त हो जाते हैं कि कल्पसूत्र काश्यपिका शाखा को सहस्ति के शिष्य वशिष्ठ गोत्रोय ऋषिगुप्त से निकले मानव गण की एक शाखा बताता है । यद्यपि इसमें काश्यपिका शाखा के प्रवर्तक का नाम अज्ञात ही है। पुनः ये उल्लेख यापनीयों को उत्पत्ति के पूर्व के हैं। चूंकि पभोसा का अभिलेख भी लिपि की दृष्टि से शुंगकालीन माना जाता है, अतः उसका समय ई०पू० द्वितीय-प्रथम शती तो निश्चित ही होगा, किन्तु यापनीयों की उत्पत्ति तो ईसा की द्वितीय शताब्दी के लगभग मानी जाती है । अतः पभोसा के अभिलेख के आधार पर भी यापनीयों को काश्यपीय अर्हत् कहना प्रमाणभूत नहीं हो सकता। विदिशा के उदयगिरि के अभिलेख ( गुप्त संवत् १०६, वि० सं०, ४२६) में पार्श्वनाथ की प्रतिमा को स्थापित कराने वाले ने अपने आपको आर्यकुल एवं भद्रान्वय के आचार्य गोशर्मा का शिष्य बताया है। इस अभिलेख के भद्रान्वय को यापनीय परम्परा का पूर्व नाम माना जा सकता है। कल्पसूत्र स्थविरावली में आर्य शिवभूति और आर्यकृष्ण, जिनके मध्य वस्त्र-पात्र-विवाद हुआ था, के पश्चात् आर्यभद्र का नाम आता है। मेरो दृष्टि में इस शिलालेख में उल्लिखित आर्यकूल और भद्रान्वय का सम्बन्ध इन्हीं आर्यभद्र से हो सकता है। संभावना है कि काश्यपगोत्रीय आर्यभद्र आर्यशिवभूति के पक्षधर रहे हों और उन्हें ही अग्रगण्य मानकर यह परम्परा अपने को आर्यकुल और भद्रान्वय को मानती हो । यह निश्चित है कि उत्तर-भारत की यह अचेल परंपरा जिसे हम बोटिक या यापनोय के नाम से जानते हैं, मथुरा से लेकर सांची तक अपना व्यापक प्रभाव रखती थी। संभावना यही है कि उत्तर-भारत में अपने प्रारम्भिक काल में यह यापनोय परम्परा आर्यकुल और भद्रान्वय के नाम से पहचानी जाती रही हो। विदिशा के महाराजाधिराज रामगुप्त के काल की एक अन्य प्रतिमा पर पाणिपात्रिक आर्यचन्द्र क्षमण-श्रमण (खमण-समण) के पट्टशिष्य तथा १. आचार्य-भद्रान्वयभूषणस्य शिष्यो ह्यसावार्यकुलोद्गतस्य [1] आचार्य-गोशर्म -जैलशिलालेख संग्रह द्वितीय भाग, पृ० ५७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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