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विषय-प्रवेश : १७
यापनीय परम्परा का प्रादुर्भाव हुआ होगा। आवश्यकमूलभाष्य में जो वीर निर्वाण के ६०९ वर्ष बाद अर्थात् ईसा की द्वितीय शती में इस सम्प्रदाय की उत्पत्ति का उल्लेख है, वह किसी सीमा तक सत्य प्रतीत होता है।
दिगम्बर परम्परा में जैन संघ के इस विभाजन की सूचना देने वाला कोई प्राचीन ग्रन्थ नहीं है, मात्र ई. सन् ९४२ (वि० सं० ९९९ ) में देवसेन द्वारा रचित 'दर्शनसार' है । इस ग्रन्थ के अनुसार विक्रम की मृत्यु के १३६ वर्ष पश्चात् सौराष्ट्र देश के वलभी नगरी में श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति हुई। इसमें यह भी कहा गया है कि श्रीकलश नामक श्वेताम्बर मुनि से विक्रम संवत् २०५ में कल्याण में यापनीय संघ उत्पन्न हुआ। चूँकि 'दर्शनसार' आवश्यकमूलभाष्य की अपेक्षा पर्याप्त परवर्ती है, अतः उसके विवरणों की प्रामाणिकता को स्वीकार करने में विशेष सतर्कता की आवश्यकता है, फिर भी इतना निश्चित है कि जब आवश्यकमलभाष्य और दर्शनसार दोनों ही वि० सं० १३६ अथवा १३९ या वीर निर्वाण संवत् ६०६ या ६०९ में संघ भेद की घटना का उल्लेख करते हैं.3 तो एक दूसरे से पुष्टि होने के कारण इस तथ्य को अप्रामाणिक नहीं माना जा सकता कि विक्रम सम्वत् की प्रथम शती के अन्त या द्वितीय शताब्दी के प्रारम्भ में जैनों में स्पष्ट रूप से संघभेद हो गया था। 'दर्शनसार' में इस संघ भेद की घटना के ७० वर्ष पश्चात् यापनीय संघ की उत्पत्ति का उल्लेख है । आवश्यकमूलभाष्य में भी कहा गया है कि शिवभूति के शिष्य कौडिन्य और कोट्टवीर से यह परम्परा आगे चली। अतः यह मानने में विशेष बाधा नहीं आती कि यह बोटिक सम्प्रदाय जिसका उल्लेख आवश्यकमूलभाष्य में मिलता है, ईसा की दूसरी शताब्दी के अन्त में या तृतीय शताब्दो के आरम्भ में एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में विकसित हुआ होगा । यद्यपि यह प्रश्न अनिर्णीत ही है कि इस सम्प्रदाय ने पूर्ण स्वतंत्र होकर 'यापनीय' नाम कब धारण किया, क्योंकि 'यापनीय' शब्द का सबसे प्राचोन प्रयोग दक्षिण भारत में मगेशवर्मन् के ईसा की १. जैन साहित्य का इतिहास पूर्वपीठिका पृ० ३७२ । २. वही, पृ० ३७२ । ३. वही, पृ० २७२-२७३ । ४. आवश्यक मूलभाष्य गाथा १४५-१४८ उद्धृत आवश्यक नियुक्ति हरि
भद्रीय वृत्ति।
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