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________________ ३१० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय ७. भाष्य की लेखन शैली भी सर्वार्थसिद्धि से प्राचीन है। वह प्रसन्न और गंभीर होते हुए भी दार्शनिकता की दृष्टि से कम विकसित और कम परिशोलित है । संस्कृत के लेखन और जैनसाहित्य में दार्शनिक शैली के. जिस विकास के पश्चात् सर्वार्थसिद्धि लिखी गई है, वह विकास भाष्य में नहीं दिखाई देता।' अर्थ की दृष्टि से भी सर्वार्थसिद्धि अर्वाचीन मालूम होती है। जो बात भाष्य में है, सर्वार्थसिद्धि में उसको विस्तृत करके और उस पर अधिक चर्चा करके निरूपण किया गया है । व्याकरण और जैनेतर दर्शनों की चर्चा भी उसमें अधिक है। जैन परिभाषाओं का जो विशदोकरण और वक्तव्य का पृथक्करण सर्वार्थसिद्धि में है, वह भाष्य में कम से कम है । भाष्य की अपेक्षा उसमें तार्किकता अधिक है और अन्य दर्शनों का खंडन भी जोर पकड़ता है। ये सब बातें सर्वार्थसिद्धि से भाष्य को प्राचीन सिद्ध करती हैं। इस तरह तत्वार्थभाष्य पूज्यपाद, अकलंकदेव, वीरसेन आदि से पहले का है और उससे उक्त सभी आचार्य परिचित थे। उन्होंने उसका किसी न किसी रूप में उपयोग भी किया है और उसकी यह प्राचीनता स्वोपज्ञता का ही समर्थन करती है। स्वोपज्ञभाष्य की आवश्यकता ___ तत्त्वार्थ जैसे संक्षिप्त सूत्र-ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ भाष्य होना ही चाहिए। क्योंकि एक तो जैनदर्शन का यह सबसे पहला संस्कृतबद्ध सूत्र-ग्रन्थ है,. जो अन्य दर्शनों के दार्शनिक सूत्रों की शैली पर रचा गया है। जैनधर्म के अनुयायी इस संक्षिप्त सूत्र-पद्धति से पहले परिचित नहीं थे। वे भाष्य की सहायता के बिना उससे पूरा लाभ नहीं उठा सकते थे। दूसरे इसको रचना का एक उद्देश्य इतर दार्शनिकों में भी जैनदर्शन की प्रतिष्ठा करना था। इसलिये भो भाष्य आवश्यक है। सूत्रकार को यह चिन्ता रहती है कि यदि स्वयं अपने सूत्रों का भाष्य नहीं किया जायगा तो आगे लोग उनका अनर्थ कर डालेंगे। पाटलिपुत्र में विहार करते हुए उन्होंने अपने इस भाष्य-ग्रन्थ की रचना की थी, इसलिए वे आर्य चाणक्य या विष्णुगुप्त के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ कौटिलीय अर्थशास्त्र (सूत्र १. उदाहरण के लिए देखो अ० १/२, १/१२, १/३२, और ३/१ सूत्रों का भाष्य और सर्वार्थसिद्धि । २. देखो, हिन्दी तत्त्वार्थ की भूमिका, पृ० ८६-८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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