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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३११ और स्वोपज्ञ भाष्य) से अवश्य परिचित होंगे, जो पाटलीपुत्र में ही निर्माण किया गया था और जिसके अन्त में कहा है कि-प्रायः सूत्रों से भाष्यकारों की विप्रतिपत्ति या विरोध देखकर-सूत्रकार का अभिप्राय कुछ था और भाष्यकारों ने कुछ लिख दिया, यह समझ कर, विष्णुगुप्त ने स्वयं सत्र बनाये और स्वयं ही भाष्य लिखा। ऐसी अवस्था में उमास्वातिका स्वयं ही भाष्य निर्माण करने में प्रवृत्त होना स्वाभाविक है । ___ अपने ग्रन्थों पर इस तरह के स्वोपज्ञ भाष्य लिखने के और भी उदाहरण हैं। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन उमास्वाति से पहले हुए हैं । उन्होंने अपने ग्रन्थ पर 'विग्रहव्यात्तिनी' नामक व्याख्या लिखी हैं। मूल ग्रन्थ कारिकाओं में है जो सत्र की ही भाँति अधिक बातों को थोड़े शब्दों में कहलाने वाली और पद्य होने से कण्ठस्थ करने योग्य होतो हैं । इसी तरह वसुबन्धु का 'अभिधर्मकोश' है जो तत्त्वार्थ जैसा हो है और उस पर भी स्वोपज्ञ भाष्य है। ____ अपने ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ टीका लिखने की यह पद्धति जैनपरम्परा में भी रही है । पूज्यपाद ने अपने व्याकरण पर जैनेन्द्र-न्यास ( अनुपलब्ध ), जिनभद्रगणि ने अपने विशेषावश्यक भाष्य पर व्याख्या, शाकटायन ने अपने व्याकरण-सत्रों पर अमोघवृत्ति और अकलंकदेव ने अपने लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय पर स्वोपज्ञ वृत्तियों को रचना की।" तत्त्वार्यसूत्र के कुछ सूत्रों का दिगम्बर मान्यताओं से विरोध___ तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य मूलपाठ के ही कुछ सूत्र स्पष्ट रूप से दिगम्बर परम्परा की मान्यताओं के भी विरोध में जाते हैं । अग्रिम पंक्तियों में हम इस सम्बन्ध में कुछ विस्तृत चर्चा करेंगे (१) सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र के चतुर्थ अध्याय के सूत्र ३ में देवों के पांच प्रकारों के आवान्तर भेदों का विवरण दिया गया है । इसमें वैमानिक देवों के बारह प्रकारों का उल्लेख हुआ है। जबकि दिगम्बर परम्परा वैमानिक देवों के सोलह भेद मान्य करती हैं। दिगम्बर परम्परा द्वारा १. दृष्ट्वां विप्रतिपत्ति प्रायः सूत्रेषु भाष्यकाराणाम् । __स्वयमेव विष्णुगुप्तश्चकार सूत्रं च भाष्यं च ।। २. नागार्जुन का समय वि० सं० २२३-२५३ निश्चित किया गया है। ३. विनयतोष भट्टाचार्य के अनुसार वसुबन्धु का समय वि० सं० २९८ है। ४. दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः। -तत्त्वार्थसूत्र ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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