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________________ विषय प्रवेश : १५ करने वाली दिगम्बर परम्परा का उल्लेख तो विक्रम की आठवीं शती के पूर्व के किसी भी श्वेताम्बर ग्रन्थ में नहीं मिलता है । साहित्यिक दृष्टि से यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में जो उल्लेख उपलब्ध हैं वे लगभग ईसा की ५वीं शताब्दी या उसके पश्चात् के हैं । यद्यपि इसके पूर्व भी यह सम्प्रदाय अस्तित्व में तो अवश्य ही आ गया था । , जहाँ तक अभिलेखीय साक्ष्यों का प्रश्न है मथुरा के ईसा की प्रथम और द्वितीय शताब्दी के, जो जैन अभिलेख उपलब्ध हैं, उनमें गणों, शाखाओं, कुलों एवं सम्भोगों के उल्लेख मिलते हैं । ये समस्त गण, कुल, शाखायें और सम्भोग कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुसार ही हैं । 'दिगम्बर साहित्य में हमें इन गणों, शाखाओं एवं कुलों का किञ्चित् भी संकेत उपलब्ध नहीं होता है । यद्यपि मथुरा से उपलब्ध उन सभी मूर्तियों और आयप (जिनपर ये अभिलेख अंकित हैं) में तीर्थङ्कर को नग्न रूप में अंकित किया गया है किन्तु वहीं उसी काल में कल्पसूत्र एवं आचाराङ्ग (द्वितीय श्रुतस्कंध ) में उल्लिखित महावीर के गर्भपरिवर्तन की घटना का अंकन भी उपलब्ध है । साथ ही उन अभिलेखों में कल्पसूत्र के अनुरूप गण, कुल, शाखा और संभोगों के उल्लेख यह सूचित करते हैं कि ये सभी - अभिलेख और मूर्तियाँ दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध नहीं । पुनः मथुरा के प्राचीन शिल्प में मुनि के हाथ की कलाई पर लटकते हुए वस्त्र का अंकन भी मिलता हैं, जिससे वे अपनी नग्नता को छिपाये हुए हैं । यह तथ्य इस शिल्प को दिगम्बर परम्परा से पृथक् करता है । किन्तु मथुरा का जैन शिल्प यापनीय भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि यापनीय परम्परा की उत्पत्ति इससे किञ्चित् परवर्त्ती है । इस शिल्प में आर्य कृष्ण (अज्ज कण्ह) का, जिनके शिष्य शिवभूति से आवश्यक मूलभाष्य में बोटिक या यापनीय परम्परा का विकास माना गया है, नामोल्लेख पूर्वक अंकन उपलब्ध होता है । पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने इसे अर्धस्फालक सम्प्रदाय का माना हैं, किन्तु इस सम्प्रदाय के अस्तित्व का दसवीं शती के पूव का कोई भी साहित्यिक या अभिलेखीय साक्ष्य नहीं है । पं० नाथूरामजो १. पट्टावलीप रागसंग्रह, कल्याणविजय पृ० ३४-४५ 2. Jaina Stupas and Other Antiquitiesof India... V. A. Smith, Plate No. 10, 15, 17 pp. 24, 25 3. Jaina Stupas and Other Antiquities. pp. 24-25. ४. जैन साहित्य का इतिहास - पूर्वपीठिका, पृ० ३८५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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