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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : २९१ पड़ने देने के खयाल से यह कह दिया है कि-"यहाँ मूल सूत्र में 'मरुतो' पाठ पीछे से प्रक्षिप्त हुआ है।" परन्तु इसके लिये वे कोई प्रमाण उपस्थित नहीं कर सके । जब प्राचीन से प्राचीन श्वेताम्बरीय टीका में 'मरुतो' पाठ स्वीकृत किया गया है तब उसे यों ही दिगम्बर पाठ को बात को लेकर प्रक्षिप्त नहीं कहा जा सकता । सूत्र तथा भाष्य के इन चार नमूनों और उनके उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सूत्र और भाष्य दोनों एक ही आचार्य की कृति नहीं है और इसलिये श्वे० भाष्य को 'स्वोपज्ञ' नहीं कहा जा सकता।" ___ इस चर्चा में जो असंगति आदरणीय मुख्तार जी दिखा रहे हैं वह यह है कि भाष्यमान्य मूल सूत्र में लोकांतिक देवों के नौ प्रकार उल्लेखित है जबकि भाष्य मात्र आठ प्रकारों की चर्चा करता है। पू० सिद्धसेनगणि और पं० सुखलाल जी दोनों ने इस संख्यागत भिन्नता का निर्देश किया किया है। किन्तु इससे यह निष्कर्ष निकाल लेना कि भाष्य स्वोपज्ञ नहीं अयुक्तिसंगत है। वास्तविकता यह है कि भाष्यकार के समक्ष जो मूल पाठ रहा होगा उसमें तो आठ हो प्रकारों का उल्लेख रहा होगा-अन्यथा वे भाष्य में आठ को संख्या का निर्देश ही क्यों करते ? जैसी कि पं० सुखलाल जो ने कल्पना की है, बाद में किसी श्वेताम्बर आचार्य ने मूलपाठ को समवायांग से संगति दिखाने हेतु उसमें मरुत को जोड़कर यह संख्या नौ कर दो। जब यापनीय और दिगम्बर आचार्यों ने अनेक पाठ बदल डाले, तो किसी परवर्ती श्वेताम्बर आचार्य ने कहीं एक नाम प्रक्षिप्त कर दिया तो मूल एवं भाष्य में बहुत बड़ो असंगति हो गई-यह नहीं कहा जा सकता है। जब भाष्यकर के समक्ष मूलपाठ में आठ ही नाम थे, तो फिर असंगति कहाँ हुई ? भाष्यकार ने तो किसी एक स्थल पर भी मूल पाठ से अपनी असंगति की चर्चा नहीं को । जबकि सिद्धसेन गणि ने जहाँ भी मूलपाठ अथवा आगम से भाष्य में कोई भिन्नता दिखाई दो, उसको चर्चा की है। जो प्राचीन श्वेताम्बर आचार्यों को बौद्धिक ईमानदारी को सूचित करता हैं। पुनः यह भी ज्ञातव्य है कि लोकान्तिक देवों की संख्या चाहे आठ माने या नौ माने दोनों ही आगम सम्मत है। समवायांग दोनों मतों का निर्देश करता है। आठ की संख्या भो आगम संगत है। अतः भाष्य की न तो मूलपाठ से और न आगम से कोई असंगति है। जो असंगति आई है वह परवर्ती प्रक्षेप के कारण आई है, यद्यपि यह प्रक्षेप कब हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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