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________________ २९० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय (v) पुनः तत्त्वार्थ के श्वेताम्बरमान्य मूल पाठ और उसके भाष्य में असंगति दिखाते हुए आदरणीय मुख्तार जी लिखते हैं कि "श्वे० सूत्रपाठके चौथे अध्याय का २६वाँ सूत्र निम्न प्रकार है• "सारस्वतादित्यबन्ह्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधमरुतोऽरिष्टाश्च ।" इसमें लोकतान्तिक देवोंके सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, मरुत और अरिष्टः ऐसे नव भेद बतलाये हैं, परन्तु भाष्यकार ने पूर्व सूत्रके भाष्य में और इस सूत्र के भाष्य में भो लोकान्तिक देवों के भेद आठ ही बतलाये हैं और उन्हें पूर्वादि आठ दिशा-विदिशाओं में स्थित सूचित किया है; जैसा कि दोनों सूत्रोंके निम्न भाष्यों में प्रकट है : "ब्रह्मलोकं परिवृत्याष्टासु दिक्षु अष्टकिकल्पा भवन्ति । तद्यथा-" "एते सारस्वतादयोऽष्टविधा देवा ब्रह्मलोकन्य पूर्वात्तरादिषु दिक्ष प्रदक्षिणं भवन्ति यथासंख्यम् ।" इससे सूत्र और भाष्यका भेद स्पष्ट है। सिद्धसेनगणी और पं० सुखलालजी ने भी इस भेद को स्वीकार किया है, जैसा कि उनके निम्नवाक्यों से प्रकट है "नन्वेवमेते नवभेदा भवन्ति, भाष्यकृता चाष्टविधा इति मुद्रिताः।" "इन दो सूत्रों के मूलभाष्य में लोकान्तिक देवोंके आठ ही भेद बतलाये हैं, नव नहीं।" इस विषय में सिद्धसेनगणी तो यह कहकर छुट्टी पा गये हैं कि लोकान्त में रहने वालों के ये आठ भेद जो भाष्यकार सूरि ने अंगीकार किये हैं वे रिष्टविमान के प्रस्तार में रहनेवालों की अपेक्षा नवभेदरूप हो जाते हैं, आगम में भी नव भेद कहे हैं, इसमें कोई दोष नहीं परन्त मल सूत्र में जब स्वयं सूत्रकार ने नव भेदों का उल्लेख किया है तब अपने ही भाष्य में उन्होंने नव भेदों का उल्लेख न करके आठ भेदों का ही उल्लेख क्यों किया है, इसका वे कोई माकूल ( युक्तियुक्त ) वजह नहीं बतला सके। इसो से पं० सुखलालजो को उस प्रकार से कहकर छुट्टी पा लेना उचित नहीं ऊंचा और इसलिये उन्होंने भाष्य को स्वोपज्ञता में बाधा न १. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश, पृ० १२८-२९ । २. 'उच्यते-लोकान्तवर्तिनः एतेष्टभेदाः सूरिणोपात्ताः रिष्टविमानप्रस्तारवर्ति भिनवधा भवन्तीत्यदोषः । आगमे तु नवधवाधीता इति ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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