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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : २८९
भेद है, उसी प्रकार अनीकाधिपति और अनीक में भेद है और यह भेद मान लेने पर सूत्र और भाष्य की देवपरिषद् की संख्या में अन्तर आ जाता है। जब सूत्रकार और भाष्यकार एक हो है तो यह अन्तर होना नहीं चाहिये" । सर्वप्रथम तो हमारी समझ में यह नहीं आता कि मूल में अनीक और भाष्य में अनीक एवं अनीकाधिपति ऐसा भेद होने पर कौन-सी बहुत बड़ी असंगति हो जाती है। कोई भी व्याख्याकार व्याख्या में किसी भेद के उपभेद की चर्चा तो कर हो सकता है। पुन: क्या इस प्रकार भेद और उपभेदों की चर्चा दिगम्बर व्याख्याकारों ने नहीं की है ? जब वे निक्षेप की चर्चा करते हैं तो क्या स्थापना के साकार-स्थापना और अनाकारस्थापना ऐसे दो भेद नहीं करते हैं ? और कोई आग्रह पूर्वक यह कहे कि साकार और अनाकार ऐसी दो स्थापना होने से व्याख्या में निक्षेप के पाँच भेद किये गये है अतः व्याख्या और मूल में असंगति है ? ऐसे तो एक दो नहीं सैकड़ों असंगतियाँ किसी भी मूलग्रन्थ और उसके भाष्य या टोका में दिखाई जा सकती है। वास्तव में अनोक (सैनिक) के भाष्य में अनीक
सैनिक) और अनीकाधिपति (सेनापति) ऐसे दो भेद करने से न तो देवपरिषद् की दस संख्या में कोई अभिवृद्धि होती है और न भाष्य और मूल में कोई असंगति ही आती है। अनीक और अनीकाधिपति का भेद राजा और प्रजा के भेद से भिन्न है-राजा प्रजा नहीं होता है, स्वामी सेवक नहीं होता है किन्तु सेनापति अनिवार्य रूप से सैनिक होता ही है-अतः मुख्तार जी ने अपने मत की पुष्टि हेतु जो उदाहरण दिया है वह स्वतः ही असंगत है। ऐसे असंगत उदाहरण देकर तो कहो भो असंगति दिखाई जा सकती है। यह स्मरण रखना चाहिये कि सेना का कोई भी अधिकारी सैनिक होता ही है। अत: मुख्तार जी द्वारा दिखाई गई यह असंगति निरस्त हो जाती है। पून: यदि वे कहे कि इन्द्र भी तो देव होता है और जब उसकी गणना तो अलग से की गई है तो फिर सेनापति की सैनिक से अलग परिगणना करना चाहिये, तो हमारा उत्तर यह है कि यह देवपरिषद् के प्रकारों की चर्चा है-इसलिये इन्द्र और उसकी परिषद् के सामानिक आदि देवों को अलग गिना गया । उसो परिषद् का एक अंग है-सैनिक देव (अनीक) । जब देव सेना के अंगों की चर्चा करना हो तो सैनिक एवं सेनापति आदि की अलग-अलग गणना करना चाहिये। वैसे तो सैनिक देवों के वर्ग में सेनापति स्वतः हो समाहित है अतः अनीक और अनीकाधिपति को अलग-अलग मानकर मूल और भाष्य में असंगति दिखाना अनुचित है।
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