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________________ २९२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय और किसने किया यह कहना कठिन है—फिर भी सिद्धसेनगणि को मूलऔर भाष्य की जो प्रति मिली, उसमें यह प्रक्षेप अवश्य था। यद्यपि यह प्रक्षेप भी आगम संगत है, आगम विरुद्ध नहीं । लगता है कि श्वेताम्बरों में जब लोकान्तिक देवों की संख्या नौ मान लो गई तभी किसी ने भाष्य का विचार किये बिना ही मूलपाठ में 'मरुत' शब्द प्रक्षिप्त कर दिया होगा। यह प्रक्षेप भी लगभग सातवीं शती के पूर्व हो हुआ होगा क्योंकि सिद्धसेन गणि उससे अवगत है। आज उस युग की कोई भी प्रति उपलब्ध नहीं है, अतः उसके प्रमाणीकरण का कोई साधन नहीं है। किन्तु भाष्य एवं सर्वार्थ सिद्धि आदि में जो पाठ है वे ही इस तथ्य का प्रमाण है कि यह प्रक्षेप हुआ है। सर्वार्थ सिद्धि का पाठ संशोधन क्यों ? हमारे दिगम्बर परम्परा के विद्वान् पूर्व परम्परा के या उसके द्वारा मान्य ग्रन्थों यथा-तत्त्वार्थ, तत्त्वार्थभाष्य, प्रशमरति और आगम में परस्पर असंगतियाँ दिखाकर यह सिद्ध करना चाहते है कि उनमें परस्पर विरोध है, अतः वे भिन्न कृतक और भिन्न परम्परा के हैं। किन्तु उन्हें स्मरण रखना चाहिये कि असंगतियाँ सर्वत्र है। सर्वार्थसिद्धि की दिगम्बर परम्परा में कितनी असंगतियाँ और कितने पाठभेद थे, यह सब हमें बताने की आवश्यकता नहीं है । स्वयं पं०फूलचन्दजी की प्रस्तावना ही इसका सबसे बडा प्रमाण है। वे लिखते हैं-"विशेष वाचन के समय मेरे ध्यान में आया कि सर्वार्थ सिद्धि में ऐसे कई स्थल हैं जिन्हें उसका मूल भाग मानने में सन्देह होता है। किन्तु जब कोई वाक्य, वाक्यांश, पद या पदांश लिपिकार की असावधानी या अन्य कारण से किसी ग्रन्थ का मूल भाग बन. जाता है तब फिर उसे बिना आधार के पृथक् करने में काफी अड़चन का सामना करना पड़ता है। यह तो स्पष्ट ही है कि आचार्य पूज्यपाद ने तत्त्वार्थ सूत्र प्रथम अध्याय के निर्देशस्वामित्व' और 'सत्संख्या' इन दो सूत्रों की व्याख्या षट्खण्डागम के आधार से की है। यहाँ केवल यह देखना है कि इन सूत्रों की व्याख्या में कहीं कोई शिथिलता तो नहीं आने पाई और यदि शिथिलता चिह्न दृष्टिगोचर होते हैं तो उसका कारण क्या है ? 'निर्देशस्वामित्व'-सूत्र की व्याख्या करते समय आचार्य पूज्यपाद ने चारों गतियों के आश्रय से सम्यग्दर्शन के स्वामी का निर्देश किया है। वहाँ तियचिनियों में क्षायिक सम्यग्दर्शन के अभाव के समर्थन में पूर्व मुद्रित प्रतियों में यह वाक्य उपलब्ध है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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