________________
तत्त्वार्थसूत्र और उनकी परम्परा : २६१ गया है और यदि देवनन्दी ने सूत्रपाठ में परिवर्तन किया है तो वे फिर यापनीय थे और उन्हें जिन भगवान् में एकादश परिषह मान्य थे और यहाँ उनकी इस सूत्र की टीका को किसी दिगम्बर आचार्य ने बदला है। इन सबमें भी उचित विकल्प यह मानना है कि पूज्यपाद ने कोई पाठ नहीं बदला है । यापनीयों से जैसा मिला उसपर टीका लिखो।
इस सन्दर्भ में इतना तो निश्चित है कि श्वेताम्बर आचार्यों ने भी पाठ के साथ स्वतः कोई छेड़-छाड़ नहीं की है, उन्हें मूलपाठ और पाठान्तर जिस रूप में उपलब्ध हुए हैं, उन्हें रखा है। क्योंकि यदि उन्हें भी अपनी परम्परा के अनुसार सूत्रपाठ बदलना होता, तो वे अपनी परम्परा से भिन्न जो मान्यताएं थीं उन्हें बदल डालते । मुझे तो ऐसा लगता है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्परा के आचार्यों पर तत्त्वार्थ के मूलपाठों को संशोधित या परिवर्धित करने का जो आरोप लगाया जाता है, वह मिथ्या हैं। क्योंकि इन टोकाकार समर्थ आचार्यों ने यदि पाठ में परिवर्तन किया होता तो यह कभी भी सम्भव नहीं था कि वे उसमें कोई भी पाठ अपनी परम्परा से भिन्न रहने देते। अतः दोनों परम्परा के विद्वानों को एक दूसरे पर इस तरह के आक्षेप नहीं लगाने चाहिए।
वास्तविकता इससे कुछ भिन्न है, मेरी समझ के अनुसार तत्त्वार्थ सूत्रकार ने उच्चनागरी शाखा की उस युग को मान्यताओं के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य की रचना को और यह भाष्यमान्य मूल पाठ और भाष्य बाद में विकसित होने वाली श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्पराओं को उपलब्ध हआ। यापनीय आचार्यों ने अपनी मान्यताओं के 'स्थिरोकरण के पश्चात् मूलपाठ को संशोधित किया और उस पर टीका लिखो। क्योंकि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्परा के विद्वान इस तथ्य को स्वीकार कर रहे हैं कि सर्वार्थसिद्धि और सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थभाष्य की टीका लिखे जाने के पूर्व तत्वार्थ की कुछ अन्य टीकाएँ अस्तित्व में थीं और संभवतः वे यापनीय परम्परा की थी। यह भी संभव है कि यापनीय परम्परा में जो तत्त्वार्थ की टीका उपलब्ध थी उसमें भाष्य को भी समाहित कर लिया होगा। यह कहने का आधार यह है कि यापनीय परम्परा ने उत्तराधिकार में उपलब्ध ग्रन्थों एवं आगमों में अपनी परम्परा के अनुरूप भाषिक और सैद्धान्तिक परिवर्तन किये थे। अत: तत्त्वार्थ के मूलपाठ में भी संशोधन उन्हीं के द्वारा किया होगा। यापनीय परम्परा से हो पूज्यपाद देवनन्दी को तत्त्वार्थ उपलब्ध हुआ और उन्होंने १. जैनसाहित्य और इतिहास, पं० नाथुराम प्रेमी; पृ० ५४४-५४५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org