________________
२६२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
उस पर अपनी परम्परा के अनुरूप सर्वार्थसिद्धि टीका लिखी । इसकी पुष्टि षट्खण्डागम जैसे यापनीय ग्रन्थों की धवला टीका से भी होती है, जिसके मूलपाठ को यथावत् रखते हुए भी दिगम्बर आचार्यों ने अपनी मान्यता के अनुरूप उस पर टीका लिखी है । इस प्रकार सिद्धसेन गणि ने तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य जैसा और जिस रूप में उन्हें प्राप्त हुआ था, उसे मान्य रखते हुए अपनी टीका लिखी और जहाँ-जहाँ उन्हें आगम और अपनी मान्यताओं से अन्तर परिलक्षित हुआ उसका निर्देश कर दिया । अतः तत्त्वार्थ का भाष्यमान्य पाठ उसके मूलकर्ता का है और सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ यापनीयों द्वारा संशोधित । इस पाठ को यापनीयों द्वारा संशोधित किये जाने का प्रमाण यह है कि इसमें पुद्गल के बंधको प्रक्रिया को यापनीय ग्रन्थ षट्खंडागम-आगम के अनुरूप बनाया गया है । दिगम्बर आचार्यों के द्वारा उसमें संशोधन नहीं हुआ है अन्यथा उसमें उनकी परम्परा से जो असंगतियाँ हैं, वे नहीं रह सकती थीं । कुछ श्वेताम्बर विद्वानों का कहना है कि पूज्यपाद देवनन्दी व्याकरण के विद्वान् थे और तत्त्वार्थ सूत्र का सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ व्याकरण शास्त्र की दृष्टि से अधिक प्रामाणिक है अतः यह संशोधन उन्हीं ने किया है, किन्तु मेरो दृष्टि से यह भ्रान्त धारणा है । यापनीय परम्परा में भी इन्द्रनन्दी आदि व्याकरण के विद्वान हुए है, अतः सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ इन्द्रनन्दी नामक यापनीय आचार्य द्वारा ही संशोधित है । जिनका उल्लेख गोम्मट्टसार में सांशयिक के रूप में हुआ है । क्या वाचक उमास्वाति और उनका तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बर परम्परा का है ?
मूर्धन्य विद्वान् पं० सुखलालजी ने अपने तत्त्वार्थ सूत्र की भूमिका में, पं० हीरालाल रसिकलाल कापड़िया ने तत्त्वार्थाधिगमसूत्र एवं उसके स्वोपज्ञ भाष्य की सिद्धसेनगणि की टीका के द्वितीय विभाग के प्रारम्भ की अंग्रेजी भूमिका में, डॉ० सुजिको ओहिरो ने अपने निबन्ध 'तत्त्वार्थसूत्र का मूलपाठ' में इसे श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयास किया है ।' स्थानकवासी आचार्य आत्माराम जी महाराज ने 'तत्त्वार्थसूत्र१. देखें - ( अ ) तत्त्वार्थसूत्र, विवेचक पं० सुखलालजी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम वाराणसी - ५ भूमिका भाग पृ० १५ - २७ ।
(ब) तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ( स्वोपज्ञ भाष्य और सिद्धसेन गणि की टीका सहित ) Introduction P. ३६-४० ।
(स) तत्त्वार्थ सूत्र, विवेचक; पं० सुखलालजी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी ५, भूमिका भाग पृ० १०५-१०७ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org