________________
२६० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
क्या तत्त्वार्थ का सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ स्वयं देवनन्दी के द्वारा संशोधित है ? या भाष्यमान पाउ स्वयं उमास्वाति का न होकर किसी अन्य श्वेताम्बर आचार्य द्वारा संशोधित है ?
सामान्यतया श्वेताम्बर विद्वानों के द्वारा यह माना जाता है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थ के पाठ को अपनी परम्परा के अनुसार संशोधित करके उस पर सर्वार्थसिद्धि नामक टीका लिखी। इसके दूसरो ओर दिगम्बर विद्वान् यह मानकर चलते हैं कि तत्त्वार्थभाष्य के कर्ता ने तत्त्वार्थ के पाठ को अपनी परम्परानुसार ढाल करके उस पर भाष्य लिखा। हमारी दृष्टि में ये दोनों ही कथन सही नहीं है। क्योंकि यदि हम यह माने कि पूज्यपाद देवनन्दी दिगम्बर परम्परा के आचार्य थे और उन्होंने दिगम्बर परम्परानुसार तत्त्वार्थ के पाठ को संशोधित किया था तो यह समझ में नहीं आता कि फिर उन्होंने मूलपाठ में वे सब बातें, जैसे 'एकादश जिने१ अथवा 'द्वादशविकल्पाः२, जो कि उनकी परम्परा के विपरीत थी, क्यों रहने दो ? जब कोई व्यक्ति अपनी परम्परा के अनुसार किसी ग्रन्थ को संशोधित करता है तो ऐसा नहीं होता है कि उसमें कुछ मान्यताओं को संशोधित करे और कुछ को वैसा ही रहने दे। यदि 'एकादशजिने' पाठ, जो स्पष्ट रूप से दिगम्बर परम्परा के विरोध में जाता है और जिसके लिए स्वयं पूज्यपाद 'एकादशजिने न सन्ति वाक्यशेषकल्पनीयः' कहकर 'न सन्ति' का अध्याहार करते हैं तो प्रश्न उपस्थित होता है कि जब उन्होंने इतने सारे पाठ बदले तो क्यों नहीं यहाँ 'न' शब्द या 'न सन्ति' शब्द मूल पाठ में रख दिया । जब इतने सारे सूत्रों में परिवर्तन कर दिया था तो 'न' को मूल पाठ में जोड़ देने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी? इस समस्या पर गंभीरतापूर्वक विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि या तो पूज्यपाद ने पाठ को संशोधित. ही नहीं किया है और उन्हें यह जिस रूप में उपलब्ध हुआ उसी पर टोका लिखी, या फिर हम यह मानें कि पूज्यपाद देवनन्दी यापनीय परम्परा के थे, उन्हें यह सूत्रपाठ मान्य था और बाद में किसी दिगम्बर आचार्य ने इस सूत्र की उनकी टीका को अपनी परम्परा के अनुरूप बनाने के लिए बदला है। इस प्रकार दो ही विकल्प हमारे सामने हो सकते हैं, प्रथम तो यह कि सूत्रपाठ पूज्यपाद देवनन्दी के द्वारा परिवर्तित नहीं किया
१. तत्त्वार्थसूत्र, ९।११ (श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों पाठों में यही क्रम है । २. वही, ४।३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org