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________________ सिद्धान्त विद्याधर और उनके सम्मतिसूत्र की परम्परा : २३७ (८) पुनः कुन्द-कुन्द के ग्रन्थों और वट्टकेर के मूलाचार की जो सन्मतिसूत्र से निकटता है, उसका कारण यह नहीं है कि सिद्धसेन दक्षिण भारत के वट्टकेर या कुन्द-कुन्द से प्रभावित हैं । अपितु स्थिति इसके ठीक विपरीत है। वटकेर और कुन्द-कुन्द दोनों ही ने प्राचीन आगमिक धारा और सिद्धसेन का अनुकरण किया है। कुन्द-कुन्द के ग्रन्थों में बस-स्थावर का वर्गीकरण, चतुर्विध मोक्ष मार्ग की कल्पना आदि पर आगमिक धारा का प्रभाव स्पष्ट है चाहें यह यापनीयों के माध्यम से ही उन तक पहुंचा हो । मूलाचार का तो निर्माण ही आगमिक धारा के नियुक्ति और प्रकीर्णक साहित्य के आधार पर हुआ है। उस पर सिद्धसेन का प्रभाव होना भी अस्वाभाविक नहीं है। आचार्य जटिल के वरांग चरित में भी सन्मति की अनेक गाथाएँ अपने संस्कृत रुपान्तर में प्रस्तुत है। यह सब इसी बात का प्रमाण है ये सभी अपने पूर्ववर्ती आचार्य सिद्धसेन से प्रभावित है। प्रो० उपाध्येजी का यह मानना, कि महावीर का सन्मतिनाम कर्नाटक में अति प्रसिद्ध है और सिद्धसेन ने इसी आधार पर अपने ग्रन्थ का नाम सन्मति दिया होगा, अतः सिद्धसेन यापनीय है, मुझे समुचित नहीं लगता है। श्वेताम्बर साहित्य में भी महावीर के सन्मति विशेषण का उल्लेख मिलता है, जैसे सन्मति से युक्त होने से वे श्रमण कहे गए। इस प्रकार प्रो० ए० एन० उपाध्ये ने सिद्धसेन के यापनीय होने के जो-जो प्रमाण दिये हैं वे सबल प्रतीत नहीं होते हैं। सुश्री कुसुम पटोरिया ने जुगल किशोर मुख्तार एवं प्रो० उपाध्ये के तर्कों के साथ-साथ सिद्धसेन को यापनीय सिद्ध करने के लिए अपने भी कुछ तर्क प्रस्तुत किये हैं। वे लिखती हैं कि सन्मतिसूत्र का श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी आदरपूर्वक उल्लेख है। जीतकल्प चर्णि में सन्मतिसूत्र को सिद्धिविनिश्चय के समान प्रभावक ग्रन्थ कहा है। श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धिविनिश्चय को शिवस्वामि को कृति कहा गया है। शाकटायन व्याकरण में भी शिवार्य के सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख है । यदि एक क्षण के लिए मान भी लिया जाये कि ये शिवस्वामि भगवती आराधना के कर्ता शिवार्य हो है तो भी इससे इतना ही फलित होगा कि कुछ यापनीय कृतियाँ श्वेताम्बरों को मान्य थी, किन्तु इससे सन्मतिसूत्र का यापनीयत्व सिद्ध नहीं होता है। पुनः सन्मतिसूत्र में अर्द्धमागधी आगम के उद्धरण भी यही सिद्ध करते हैं कि वे उस आगमिक परम्परा के अनुसरणकर्ता हैं जिसके उत्तराधिकारी श्वेताम्बर एवं यापनीय दोनों हैं । यह बात हम पूर्व में ही प्रतिपादित कर चुके हैं कि आगमों के अन्तविरोध को दूर करने के लिए ही उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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