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________________ - २३८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय अपने अभेदवाद की स्थापना की थी । सुश्री कुसुम पटोरिया ने विस्तार से सन्मतिसूत्र में उनके आगमिक अनुसरण की चर्चा की है। यहाँ हम उस विस्तार में न जाकर केवल इतना ही कहना पर्याप्त समझते हैं कि सिद्धसेन उस आगमिक धारा में ही हुए हैं जिसका अनुसरण श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ने किया है और यही कारण है कि दोनों ही उन्हें अपनी-अपनी परम्परा का कहते हैं । आगे वे पुन: यह स्पष्ट करती है कि गुण और पर्याय के सन्दर्भ में भी उन्होंने आगामों का स्पष्ट अनुसरण किया है और प्रमाणरूप में आगम वचन उद्धृत किये हैं । यह भी उन्हें आगमिक धारा का ही सिद्ध करता है | श्वेताम्बर और यापनीय दोनों धारायें अर्धमागधी आगम को प्रमाण माती हैं । सिद्धसेन के सम्मुख जो आगम थे वे देवद्ध वाचना के न होकर माथुरी वाचना के रहे होंगे क्योंकि देवद्ध निश्चित ही सिद्धसेन से परवर्ती हैं । सुश्री पटोरिया ने मदनूर जिला नेल्लौर के एक अभिलेख' का उल्लेख करते हुए यह बताया है कि कोटमुडुवगण में मुख्य पुष्यार्हनन्दि गच्छ में गणधर के सदृश जिननन्दी मुनीश्वर हुए हैं उनके शिष्य पृथ्वी पर विख्यात केवलज्ञान निधि के धारक स्वयं जिनेन्द्र के सदृश दिवाकर नाम के मुनि हुए । यह सत्य है कि यह कोटिमडुवगण यापनोय है किन्तु इस अभिलेख में उल्लिखित दिवाकर सिद्धसेन दिवाकर है, यह कहना कठिन है क्योंकि इसमें इन दिवाकर के शिष्य श्रीमंदिर देवमुनि का उल्लेख है जिनके द्वारा अधिष्ठित कटकाभरण नामक जिनालय को यह दान दिया गया था । यदि दिवाकर मन्दिरदेव के गुरु हैं तो वे सिद्धसेन दिवाकर न होकर अन्य कोई दिवाकर हैं क्योंकि इस अभिलेख के अनुसार मन्दिर - देव का काल ईस्वी सन् ९४२ अर्थात् वि० सं० १००२ है । इनके गुरु इनसे ५० वर्ष पूर्व भी माने जायें तो वे दसवीं शताब्दी उत्तरार्ध में ही सिद्ध होते जबकि सिद्धसेन दिवाकर तो किसी स्थिति में पाँचवी शती से परवर्ती नहीं है । अतः वे दिवाकर सिद्धसेन दिवाकर नहीं हो सकते हैं । दोनों के काल में लगभग ६०० वर्ष का अन्तर है यदि इसमें उल्लेखित दिवाकर को मन्दिरदेव का साक्षात गुरु न मानकर परम्परा गुरु मानें तो इससे उनका यापनीय होना सिद्ध नहीं होता है क्योंकि परम्परा गुरु के रूप में तो गौतम आदि गणधरों एवं भद्रबाहु आदि प्राचीन आचार्यों का भी उल्लेख किया जाता है । अन्त में सिद्ध यही होता है कि सिद्धसेन दिवाकर यापनीय न होकर यापनीयों और श्वेताम्बरो - दोनों के पूर्वज थे । १. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेख क्रमांक १४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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