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________________ - २३६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय गण से है जो श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही परम्पराओं का पूर्वज हैं । ज्ञातव्य है कि उमास्वाति भी इसी कोटिक गण की उच्चनागरी शाखा में हुए थे । पुनः कल्पसूत्र स्थिविरावली में आर्य वृद्ध के पूर्व आर्य भद्रका उल्लेख हुआ है । यदि ये आर्य भद्र वराहमिहर के भाई भद्रबाहु (द्वितीय) हैं तो इससे भी जहाँ एक ओर सिद्धसेन की चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य से समकालिकता सिद्ध होजाती है वहीं उनका काल भी निश्चित हो जाता है । हम चाहे उनके गण (वंश) की दृष्टि से विचार करे या काल की दृष्टि से विचार करें सिद्धसेन दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्पराओं के अस्तित्व में आने के पूर्व ही हो चुके थे । वे उत्तर भारत की निग्रन्थ धारा में हुए हैं जो आगे चलकर श्वेताम्बर और यापनीय के रूप में विभाजित हुई । यापनीय परम्परा के ग्रन्थों में सिद्धसेन का आदरपूर्वक उल्लेख उन्हें अपनी पूर्वज धारा के एक विद्वान आचार्य होने के कारण ही है । वस्तुतः सिद्धसेन को श्वेताम्बर या यापनीय सिद्ध करने के प्रयत्न इसलिए निरर्थक है कि पूर्वज धारा में होने के कारण क्वचित् मतभेदों के होते हुए भी वे -दोनों के लिए समान रूप से ग्राह्य रहे हैं । श्वेताम्बर और यापनीय दोनों को यह अधिकार है कि वे उन्हें अपनी परम्परा को बताएँ किन्तु उन्हें साम्प्रदायिक अर्थ में श्वेताम्बर या यापनीय नहीं कहा जा सकता है । वे दोनों के ही पूर्वज है (७) प्रो० ए०एन० उपाध्ये ने उन्हें कर्नाटकीय ब्राह्मण बताकर कर्नाटक यापनीय परम्परा का प्रभाव होने से उनको यापनीय परम्परा से जोड़ने का प्रयत्न किया है । किन्तु उत्तर-पश्चिम कर्णाटक में उपलब्ध पाँचवी, छठीं शताब्दी के अभिलेखों से यह सिद्ध होता है कि उत्तर भारत के श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ का भी उस क्षेत्र में उतना ही मान था जितना निर्ग्रन्थ संघ और यापनीयों का था । उत्तर भारत के ये आचार्य भी उत्तर कर्नाटक तक की यात्रायें करते थे । सिद्धसेन यदि दक्षिण भारतीय ब्राह्मण होगें तो इससे यह फलित नहीं होता है कि वे यापनीय थे । उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ धारा, जिससे श्वेताम्बर और यापनीयों का विकास हुआ है, का भी बिहार दक्षिण में प्रतिष्ठानपुर अर्थात् उत्तर पश्चिमी कर्नाटक तक निर्बाध रूप से होता रहा है । अतः सिद्धसेन का कर्नाटकीय ब्राह्मण होना का उनके यापनीय होने का प्रबल प्रमाण नहीं माना जा सकता है । मेरी दृष्टि में इतना मानना ही पर्याप्त है कि सिद्धसेन कोटिक गण की उस विद्याधर शाखा में हुए थे जो कि श्वेताम्बर और यापनीयों की पूर्वज है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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