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________________ सिद्धान्त विद्याधर और उनके सम्मतिसूत्र की परम्परा : २३५.. बाधा नहीं आती है, क्योंकि यापनीयों को भी कल्पसूत्र तो मान्य था हो । किन्तु कल्पसूत्र को मान्य करने के कारण वे श्वेताम्बर भी तो माने जा सकते हैं। अतः यह तर्क उनके यापनीय होने का सबल तर्क नहीं है। कल्पसूत्र श्वेताम्बर और यापनीयों के पूर्व का ग्रन्थ है और दोनों को मान्य हैं । अतः कल्पसूत्र को मान्य करने से वे दोनों के पूर्वज भी सिद्ध होते हैं। आचार्य सिद्धसेन के कुल और वंश सम्बन्धी विवरण भी उनकी परम्परा निर्धारण में सहयोगी सिद्ध हो सकते हैं। प्रभावकचरित्र और प्रबन्धकोश में उन्हें विद्याधर गच्छ का बताया गया है। अतः हमें सर्वप्रथम इसी सम्बन्ध में विचार करना होगा। दिगम्बर और यापनोयों में विद्याधर गच्छ होने की कोई भी प्रमाण नहीं है। दिगम्बर परम्परा ने सेन नामान्त के कारण उनको सेनसंघ का मान लिया है । यद्यपि यापनीय और दिगम्बर ग्रन्थों में जहाँ उनका उल्लेख हुआ है वहाँ उनके गण या संघ का कोई उल्लेख नहीं है। कल्पसत्र स्थविरावली के अनुसार आर्य सुस्थित के पाँच प्रमुख शिष्यों में स्थविर विद्याधरगोपाल एक प्रमुख शिष्य थे। उन्हीं से विद्याधर शाखा निकली।' यह विद्याधर शाखा कोटिक गण की एक शाखा थी। हमारी दृष्टि में आर्य सिद्धसेन इसो विद्याधर शाखा में हुए हैं। परवर्ती काल में गच्छ नाम प्रचलित होने के कारण ही प्रबन्धों में इसे विद्याधर गच्छ कहा गया है। कल्पसत्र स्थिविरावली में सिद्धसेन के गुरु आर्य वृद्ध का भी उल्लेख मिलता है । इस आधार पर यदि हम विचार करें तो आर्य वृद्ध का काल देवर्धिगणि से चार पीढ़ी पूर्व होने के कारण उनसे लगभग १२० वर्ष पूर्व रहा होगा अर्थात् वे वीर निर्वाण सम्वत् ८६० में हए होंगे। इस आधार पर उनकी आर्य स्कंदिल से निकटता भी सिद्ध हो जातो है, क्योंकि माथुरी वाचना का काल वीर निर्वाण सं० ८४० माना जाता है इस प्रकार उनका काल विक्रम की चौथी शताब्दो निर्धारित होता है । मेरो दष्टि में संभाव । यही है कि आचार्य सिद्धसेन इन्हीं आर्य वृद्ध के शिष्य रहे होंगे । अभिलेखों के आधार पर आर्य वृद्ध कोटिक गण की व्रजी शाखा के थे। विद्याधर शाखा भी इसी कोटिक गण की एक शाखा थी । गण की दृष्टि से तो आर्य वद्ध और सिद्धसेन एक ही गण के सिद्ध होते हैं, किन्तु शाखा का अन्तर अवश्य विचारणीय है। सम्भवतः आर्य वृद्ध सिद्धसेन के विद्यागुरु हों, फिर भी इतना निश्चित है कि आचार्य सिद्धसेन का सम्बन्ध उसी कोटिक १. कल्पसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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