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२३४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
को मान्य कर लेना था, अभेदवाद के स्थापन की क्या आवश्यकता थी? वस्तुतः अभेदवाद के माध्यम से वे एक ओर केवलज्ञान के सादि-अनन्त होने के आगमिक वचन की तार्किक सिद्धि करना चाहते थे, वहीं दूसरी ओर क्रमवाद और युगपद्वाद की विरोधी अवधारणाओं का समन्वय भी करना चाहते थे । उनका क्रमवाद और युगपद्वाद के बीच समन्वय का यह प्रयत्न स्पष्ट रूप से यह सूचित करता है कि वे दिगम्बर या यापनीय नहीं थे । यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता हैं कि यदि सिद्धसेन ने क्रमवाद की श्वेताम्बर और युगपद्वाद की दिगम्बर मान्यताओं का समन्वय किया है, तो उत्तका काल सम्प्रदायों के अस्तित्व के बाद होना चाहिए । इस सम्बन्ध में हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि इन विभिन्न मान्यताओं का विकास पहले हआ है और बाद में साम्प्रदायिक ध्र वीकरण की प्रक्रिया में किसी सम्प्रदाय विशेष ने किसी मान्यता विशेष को अपनाया है। पहले मान्यताएँ अस्तित्त्व में आयीं और बाद में सम्प्रदाय बने । युगपद्वाद भी मूल भी में दिगम्बर मान्यता नहीं है, यह बात अलग है कि बाद में दिगम्बर परम्परा ने उसे मान्य रखा है। युगपद्वाद का सर्वप्रथम निर्देश श्वेताम्बर कहे जाने वाले उमास्वाति के तत्त्वार्थधिगम भाष्य में है । सिद्धसन के समक्ष क्रमवाद और युगपद्वाद दोनों उपस्थित थे । चकि श्वेताम्बरों ने आगम मान्य किए थे इसलिए उन्होंने आगमिक क्रमवाद को मान्य किया। दिगम्बरों को आगम मान्य नहीं थे अतः उन्होंने तार्किक युगपद्वाद को प्रश्रय दिया। अतः यह स्पष्ट है कि क्रमवाद एवं युगपद्वाद को ये मान्यताएँ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के पूर्व को है इस प्रकार युगपद्वाद और अभेदवाद को निकटता के आधार पर सिद्धसेन को किसी सम्प्रदाय विशेष का सिद्ध नहीं किया जा सकता है। अन्यथा फिर तो तत्त्वार्थभाष्यकार को भी दिगम्बर मानना होगा, किन्तु कोई भी तत्त्वार्थभाष्य को सामग्री के आधार पर उसे दिगम्बर मानने को सहमत नहीं होगा।
(४) पुनः आदरणीय उपाध्ये जी का यह कहना कि एक द्वात्रिंशिका में महावीर के विवाहित होने का संकेत चाहे सिद्धसेन दिवाकर को दिगम्बर घोषित नहीं करता हो, किन्तु उन्हें यापनीय मानने में इससे
१. सम्भिन्न ज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत् सर्वभाव ग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति ।
-तत्त्वार्थभाष्य १/३१
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