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२२२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय अपनी परम्परा का नहीं मानते थे। अतः सिद्ध यही होता है कि विमलसरि श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्परा के पूर्वज है। श्वेताम्बरों ने सदैव अपने पर्वज आचार्यों को अपनी परम्परा का मानाहै । विमलसूरि के दिगम्बर होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, यापनीयों ने उनका अनुसरण करते हुए भी उन्हें अपनी परम्परा का नहीं माना, अन्यथा रविषेण और स्वयम्भु कहीं न कहीं उनका नाम निर्देश अवश्य करते। पुनः यापनोयों की शौरसेनी प्राकृत को न अपना कर अपना काव्य महाराष्ट्री प्राकृत में लिखना यही सिद्ध करता है कि वे यापनीय नहीं है।
विमलसरि की परम्परा के सम्बन्ध में दो ही विकल्प है। यदि हम उनके ग्रन्थ का रचना काल वीर निर्वाण सम्वत् ५३० मानते हैं तो हमें उन्हें श्वेताम्बर और पापनोयों का पूर्वज मानना होगा। यदि हम इस काल को वीर निर्वाण सम्वत् न मानकर विक्रम सम्वत् मानते हैं, जैसा कि कुछ विद्वानों ने माना है, तो उन्हें श्वेताम्बर आचार्य मानना होगा।
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