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________________ यापनीय साहित्य : २२१ षउमचरियं में उपलब्ध श्वेताम्बर (सियंबर) शब्द के प्रयोग को संप्रदाय सूचक न मानकर उस युग के सवस्त्र मुनि का सूचक माना है। हो सकता है कि परवर्ती श्वेताम्बर आचार्यों या प्रतिलिपि कर्ताओं ने यह शब्द बदला हो, यद्यपि ऐसी संभावना कम है । क्योंकि सीता साध्वी के लिये भी सियंबार शब्द का प्रयोग उन्होंने स्वयं ही किया होगा। मुझे ऐसा लगता है विमल सूरि के युग तक जैन मुनियों में वस्त्र रखने की प्रवृत्ति विकसित हो चुकी थी। मथुरा के ईसा की प्रथम-द्वितीय शती के अंकन भी इसकी पुष्टि करते हैं। जिस प्रकार सवस्त्र साध्वी सीता को विमलसरि ने सियंबरा कहा उसी प्रकार सवस्त्र मुनि को भी सियंबर कहा होगा। उनका यह प्रयोग निग्रन्थ मुनियों द्वारा वस्त्र रखने की प्रवृत्ति का सूचक है, न कि श्वेताम्बर दिगम्बर संघभेद का । विमलसूरि निश्चित ही श्वेताम्बर और यापनीय-दोनों के पूर्वज है। श्वेताम्बर उन्हें अपने संप्रदाय का केवल इसीलिये मानते हैं कि वे उनकी पूर्व परंपरा से जुड़े हुए हैं। श्रीमती कुसुम पटोरिया ने महावीर जयन्ती स्मारिका जयपुर वर्ष १९७७ ई०पृष्ठ २५७ पर इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वोकार किया है कि विमलसूरि और पउमचरियं यापनीय नहीं है। वे लिखती हैं कि 'निश्चित विमलसरि एक श्वेताम्बराचार्य है । उनका नाइलवंश, स्वयंभू द्वारा उनका स्मरण न किया जाना तथा उनके (ग्रन्थ में) श्वेताम्बर साधु का आदरपूर्वक उल्लेख-उनके यापनीय न होने के प्रत्यक्ष प्रमाण है। विमलसूरि और उनके ग्रन्थ पउमचरियं को यापनीय मानने में सबसे बड़ी बाधा यह भी है कि उनकी कृति महाराष्ट्री प्राकृत में है जबकि किसी भी यापनीय या दिगंबर लेखक ने महाराष्ट्री प्राकृत को अपने ग्रन्थ की भाषा नहीं बनाया है। यापनीयों ने सदैव ही अर्धमागधी से प्रभावित शौरसेनो प्राकृत को ही अपनी भाषा माना है। अतः आदरणीय पं० नाथुरामजी प्रेमी ने उसके यापनीय होने के संबंध में जो संभावना प्रकट की है, वह समुचित प्रतीत नहीं होती है। यह ठीक है कि उनकी मान्यताओं की श्वेताम्बरों एवं यापनीयों दोनों से समानता है, किन्तु इसका कारण उनका इन दोनों परम्पराओं का पूर्वज होना है-श्वेताम्बर या यापनोय होना नहीं । कालकी दष्टि से भी वे इन दोनों के पूर्वज ही सिद्ध होते हैं। पुनः यापनीय आचार्य रविषेण और अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भु द्वारा उनकी कृति का पूर्णतः अनुसरण करने पर भी उनके नाम का उल्लेख नहीं करना यही सूचित करता है कि वे उन्हें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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