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२२० : जैनधर्म का यापनीयसम्प्रदाय 'निर्धारण कर लिया गया। किन्तु नन्दीसूत्र में आचार्यों के क्रम में बीचबीच में अन्तराल रहे हैं । अतः आचार्य विमलसूरि का काल वीर निर्वाण सं० ५३० अर्थात् विक्रम की दूसरी शताब्दी का पूर्वार्ध मानने में कोई बाधा नहीं आती है। यदि हम पउमचरियं के रचनाकाल वीर नि० सं० ५३० को स्वीकार करते हैं, तो यह स्पष्ट है कि उस काल तक उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में विभिन्न कुल शाखाओं की उपस्थिति और उनमें कुछ मान्यता भेद या वाचनाभेद तो था फिर भी स्पष्ट संघभेद नहीं हुआ था। दोनों परंपरा इस संघभेद को वोर निर्वाण सं० ६०६ या६०९ में मानती है। अतः स्पष्ट है कि अपने काल की दृष्टि से भी विमलसरि संघ. भेद के पूर्व के आचार्य हैं और इसलिए उन्हें किसी संप्रदाय विशेष से जोड़ना संभव नहीं है। हम सिर्फ यहो कह सकते हैं वे उत्तर भारत के उस श्रमण संघ में हुए हैं, जिससे श्वेताम्बर और यापनीय दोनों धाराएँ निकली हैं । अतः वे श्वेताम्बर और यापनीय दोनों के पूर्वज हैं और दोनों ने उनका अनुसरण किया है । यद्यपि दक्षिण भारत की निर्ग्रन्थ परंपरा के प्रभाव से यापनीयों ने उनकी कुछ मान्यताओं को अपने अनुसार संशोधित कर लिया था, किन्तु स्त्रीमुक्ति आदि तो उन्हें भी मान्य रही है।
पउमचरियं में स्त्रीमक्ति आदि की जो अवधारणा है वह भी यही सिद्ध करती है कि वे इन दोनों परंपराओं के पूर्वज हैं, क्योंकि दोनों ही परम्परायें स्त्रीमुक्ति को स्वीकार करती हैं । यदि कल्पसूत्र स्थविरावली के सभी गण, कुल, शाखायें श्वेताम्बरों द्वारा मान्य है, तो विमलसूरी को श्वेताम्बरों का पूर्वज मानने में कोई बाधा नही है। पुनः यह भी सत्य है कि सभी श्वेताम्बर आचार्य उन्हें अपनी परंपरा का मानते रहे हैं । जबकि यापनीय रविषेण और स्वयंभू ने उनके ग्रन्थों का अनुसरण करते हुए भी उनके नाम का स्मरण तक नहीं किया है, इससे यही सिद्ध होता है कि वे उन्हें अपने से भिन्न परंपरा का मानते थे । किन्तु यह स्मरण रखना होगा कि वे उसी युग में हुए हैं जब श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर का स्पष्ट भेद सामने नहीं आया था । यद्यपि कुछ विद्वान् उनके ग्रन्थ में मुनि के लिए 'सियंबर' शब्द के एकाधिक प्रयोग देखकर उनको श्वेताम्बर परंपरा से सम्बद्ध करना चाहेंगे, किन्तु इस संबंध में कुछ सावधानियों की अपेक्षा है । विमलसूरि के इन दो-चार प्रयोगों को छोड़कर हमें प्राचीन स्तर के साहित्य में कहीं भी श्वेताम्बर या दिगम्बर शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता है । स्वयं विमलसूरि द्वारा पउमचरियं में एक भी स्थल पर दिगम्बर शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। विद्वानों ने भी विमलसूरि के
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