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________________ यापनीय साहित्य : २१५ कम्पित करने की घटना का भी उल्लेख हुआ है, यह अवधारणा भी श्वेताम्बर परम्परा में बह प्रचलित है। ३-पउमचरियं (२/३६-३७) में यह भी उल्लेख है कि महावीर केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भव्य जीवों को उपदेश देते हुए विपुलाचल पर्वत पर आये, जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर ने ६६ दिनों तक मौन रखकर विपूलाचल पर्वत पर अपना प्रथम उपदेश दिया । डा० हीरालाल जैन एवं डा० उपाध्ये ने भी इस कथन को श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में माना है।' ४-पउमचरियं (२/३३) में महावीर का एक अतिशय यह माना गया है कि वे देवों के द्वारा निर्मित कमलों पर पैर रखते हुए यात्रा करते थे। यद्यपि कुछ विद्वानों ने इसे श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में प्रमाण माना है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह कोई महत्त्वपूर्ण प्रमाण नहीं कहा जा सकता। यापनीय आचार्य हरिषेण एवं स्वयम्भू आदि ने भी इस अतिशय का उल्लेख किया है। ५-पउमचरियं (२/८२) में तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति के बन्ध के बीस कारण माने हैं। यह मान्यता आवश्यकनियुक्ति और ज्ञाताधर्मकथा के समान ही है । दिगम्बर एवं यापनीय दोनों ही परम्पराओं में इसके १६ ही कारण माने जाते रहै हैं; अतः इस उल्लेख को श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में एक साक्ष्य कहा जा सकता है। ६-पउमचरियं में मरुदेवी और पद्मावती-इन तीर्थंकर माताओं के द्वारा १४ स्वप्न देखने का उल्लेख है ।२ यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा १६ स्वप्न मानती है। इस प्रकार इसे भी ग्रन्थ के ३ वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के सम्बन्ध में प्रबल साक्ष्य माना जा सकता है। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने यहाँ स्वप्नों की संख्या १५ बतायी है। भवन और विमान को उन्होंने दो अलग-अलग स्वप्न माना है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि जो तीर्थंकर नरक से आते हैं, उनकी माताएँ भवन और जो तीर्थंकर देवलोक से आते हैं उनकी माताएँ विमान देखती हैं। १. पउमचरियं, ३/६२; २१/१३ । ( यहाँ मरुदेवी और पद्मावती के स्वप्नों में समानता है, मात्र मरुदेवी के सन्दर्भ में 'वरसिरिदाम' शब्द आया है, जबकि पद्मावती के स्वप्नों में 'अभिसेकदाम' शब्द आया है किन्तु दोनों का अर्थ लक्ष्मी ही है।) २. जैन साहित्य और इतिहास (नाथूराम प्रेमी), पृष्ठ ९९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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