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________________ २१४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय आगमों में इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध होने से इसे भी निर्णायक तथ्य नहीं माना जा सकता है । इसी प्रकार नदियों का विवरण तथा भरत और ऐरावत क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल का विभाग आदि तथ्यों को भी ग्रंथ के दिगंबरत्व के प्रमाण हेतु प्रस्तुत किया जाता है, किन्तु ये सभी तथ्य श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी उल्लेखित हैं । अतः ये तथ्य ग्रन्थ के दिगम्ब-रत्व या श्वेताम्बरत्व के निर्णायक नहीं कहे जा सकते । मूल परम्परा के एक होने से अनेक बातों में एकरूपता का होना तो स्वाभाविक ही है । पुनः षट्खण्डागम, तिलोय पण्णति तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि आदि दिगम्बर टीकायें पउमचरियं से परवर्ती है अतः उनमें विमलसूरि के पउमचरियं का अनुसरण देखा जाना आश्चर्यजनक नहीं है किन्तु इनके आधार पर उसकी परम्परा को निश्चित नहीं किया जा सकता है । पूर्ववर्ती ग्रन्थ के आधार पर परवर्ती ग्रन्थ की परम्परा का निर्धारण तो सम्भव है किन्तु परवर्ती ग्रन्थ के आधार पर पूर्ववर्ती ग्रन्थ को परम्परा को निश्चित नहीं को जा सकती है । पुनः पउमचरियं में तीर्थंकर माता के १४ स्वप्न, तीर्थंकर नाम कर्मबन्ध के बीस कारण, चक्रवर्ती की रानियों की ६४००० संख्या, महावीर के द्वारा मेरुकम्पन, स्त्रीमुक्ति का स्पष्ट उल्लेख आदि अनेक ऐसे तथ्य है जो स्त्री मुक्ति निषेधक दिगम्बर परम्परा के विपक्ष में जाते हैं । विमलसूरि के सम्पूर्ण ग्रन्थ में दिगम्बर शब्द का अनुल्लेख और सियम्बर शब्द का एकाधिक बार उल्लेख होने से उसे किसी भी स्थिति में दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध नहीं किया जा सकता है । आयें अब इसी प्रश्न पर श्वेताम्बर विद्वानों के मन्तव्य पर भी विचार करें और देखें कि क्या वह श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ हो सकता है ? पउमचरियं के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किये जाते हैं १ - विमलसूरि ने लिखा है कि 'जिन' के मुख से निर्गत अर्थरूप वचनों को गणधरों ने धारण करके उन्हें ग्रन्थरूप दिया - इस तथ्य को मुनि कल्याणविजय जी ने श्वेताम्बर परम्परा सम्मत बताया है । क्योंकि श्वे ० परम्परा की नियुक्ति में इसका उल्लेख मिलता है ।" २- पउमचरियं ( २ / २६) में महावीर के द्वारा अँगूठे से मेरु रुर्वत को १, 'जिणवरमुहाओ अत्थो सो गणहेरहि धरिउं । आवश्यक निर्युक्ति १/१० २. देखे - पद्मपुराण ( आचार्य रविशेष ), प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी, सम्पादकीय, पृ० ७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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