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________________ यापनीय साहित्य : २१३ षट्खण्डागम एवं तिलोयपण्णत्ती में इसका उल्लेख पाया जाता है।' किन्तु मेरी दृष्टि में प्रथम तो यह भी पउमचरियं के सम्प्रदाय निर्णय के लिए महत्त्वपूर्ण साक्ष्य नहीं माना जा सकता है, क्योंकि अनुदिक् को अवधारणा से श्वेताम्बरों का भी कोई विरोध नहीं है। दूसरे जब अनुदिक् शब्द स्वयं आचारांग में उपलब्ध है तो फिर हमारे दिगम्बर विद्वान् यह कैसे कह देते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में अनुदिक की अवधारणा नहीं है। ८-पउमचरियं में दीक्षा के अवसर पर ऋषभ द्वारा वस्त्रों के त्याग का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार से भरत द्वारा भी दीक्षा ग्रहण करते समय वस्त्रों के त्याग का उल्लेख है।४ किन्तु यह दोनों सन्दर्भ भी पउमचरि के दिगम्बर या यापनीय होने के प्रमाण नहीं कहे जा सकते। क्योंकि श्वेताम्बर मान्य ग्रन्थों में भी दीक्षा के अवसर पर वस्त्राभूषण त्याग का उल्लेख तो मिलता ही है। यह भिन्न बात है कि श्वेताम्बर ग्रन्थों में उस वस्त्र त्याग के बाद कहीं देवदुष्य का ग्रहण भी दिखाया जाता है । ६ ऋषभ, भरत, महावीर आदि अचेलकता तो स्वयं श्वेताम्बरों को भी मान्य है। अतः पं० परमानन्द शास्त्री का यह तर्क ग्रन्थ के दिगम्ब रत्व का प्रमाण नहीं माना जा सकता है। (९) पं० परमानन्द शास्त्री के अनुसार पउमचरियं में नरकों की संख्या का जो उल्लेख मिलता है वह आचार्य पूज्यपाद के सर्वार्थसिद्धिमान्य तत्त्वार्थ के पाठ के निकट है, जबकि श्वेताम्बर भाष्य-मान्य तत्त्वार्थ के मूलपाठ में यह उल्लेख नहीं है। किन्तु तत्त्वार्थभाष्य एवं अन्य श्वेताम्बर १. पउमचरियं, इण्ट्रोडक्सन पेज १९; पद्मपुराण, भूमिका ( पं० पन्नालाल ), पृ० ३०। जो इमाओ (दिसाओ) अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सयाओ दिसाओ अणुदिसाओ, सोऽहं । -आचारांग ११।१।१, शीलांकटीका, पृ० १९ । ( ज्ञातव्य है कि मूल पउमचरियं में केवल 'अनुदिसाइं. शब्द है जो कि आचारांग में उसी रूप में है। उससे नौ अनुदिशाओं की कल्पना दिखाकर उसे श्वेताम्बर आगमों में अनुपस्थित कहना उचित नहीं है।) ३. देखिए, पउमचरियं ३/१३५-३६; ४. पउमचरियं, ८३/५ ५. मुक्कं वासोजुयलं"-चउपन्नमहापुरिसचरियं, पृ० २७३ । ६. एगं देवदूसमादाय..."पव्वइए । कल्पसूत्र ११४ ७. पउमचरियं भाग-१ ( इण्ट्रोडक्सन पेज १९, फुटनोट ५ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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