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________________ यापनीय साहित्य : २०५: शाकटायन के स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति प्रकरण' शाकटायन के इन दोनों ग्रन्थों के संदर्भ में हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं । स्त्रीमुक्ति प्रकरण में स्त्रीमुक्ति का समर्थन ४६ श्लोकों में और केवलिभुक्ति प्रकरण में केवलिभुक्ति का समर्थन ३७ श्लोकों में किया गया है। यह स्पष्ट है कि ये दोनों मान्यताएँ दिगम्बर परम्परा से भिन्न हैं तथा श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा की हैं। यापनीय अचेलता के साथ-साथ स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति को भी स्वीकार करते थे। इन ग्रन्थों में एक ओर अचेलता का समर्थन किया गया है तो दूसरी ओर स्त्री-मुक्ति और केवलिभुक्ति का भी समर्थन किया है। अतः इनको यापनीय मानने से कोई आपत्ति नहीं आती है। ___ शाकटायन स्त्रीमुक्ति प्रकरण में मुनि के लिये अपवाद मार्ग में और स्त्री के लिये उत्सर्ग मार्ग में वस्र ग्रहण को स्वीकार करते हैं और यह बताते हैं ऐसी स्थिति में सवस्त्र स्त्री को स्थविर आदि के समान मुक्ति सम्भव है । वे लिखते हैं कि जिन शासन में स्त्रियों की चर्या वस्त्र के बिना नहीं कही गई है और पुरुष की चर्या बिना वस्त्र के कही गई है। वे आगे कहते हैं कि स्थविर (सवस्त्र मुनि) के समान सवस्त्र स्त्री की भी मुक्ति सम्भव है । यदि सवस्त्र होने के कारण स्त्री की मुक्ति स्वीकार नहीं करेंगे तो फिर अर्श, भगन्दर आदि रोगों में और उपसर्ग की अवस्था में सर्वत्र मुनि की भी मुक्ति सम्भव नहीं होगी। इस चर्चा से स्पष्ट रूप से दो मख्य बातें सिद्ध होती हैं। प्रथम तो यह कि मुनि के लिये उत्सर्ग में अचेलता और अपवाद मार्ग में सचेलता तथा स्त्री के लिये उत्सर्ग मार्ग में भी सचेलता उन्हें मान्य है। इससे ही वे सवस्त्र की मुक्ति भी स्वीकार करते हैं। अतः शकटायन का यापनीय होना निर्विवाद है क्योंकि यह मान्यता मात्र यापनीयों की है। १. ये दोनों ग्रंथ शाकटायन व्याकरणम्, सम्पादक-पं० शम्भुनाथ त्रिपाठी, प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ (मूर्तिदेवी ग्रंथमाला ग्रंथांक ३९) के अन्तर्गत परिशिष्ट के रूप में ग्रन्थ की भूमिका के पश्चात् छपे हैं । २. वस्त्र विना न चरणं स्त्रीणामित्यहतीच्यत, विनाऽपि । पुसामिति न्यवार्यत, तत्र स्थविरादिवद मुक्तिः ।। अर्शीर्भगन्दरादिषु गृहीतचीरो यतिन मुच्यते । उपसर्गे वा चीरेग्गदादिः संन्यस्यते चात्ते ।। -स्त्रीमुक्ति प्रकरण, कारिका, १६-१७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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