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२०४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय · कही जा सकती है। यह ई० सन् ८१४ ई० से सन् ८६७ के बीच कभी लिखी गई थी।
पण्डित नाथूराम जी प्रेमी ने इस सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की है।' यह अमोघवृत्ति अमोघवर्प नामक शासक के सम्मान में लिखी गई है। कडब के दानपत्र शक सं० ७३५ अर्थात् ई० सन् ८१३ में यापनीय नन्दिसंघपूण्णागवक्षमलगण के अर्ककीर्ति नामक आचार्य का उल्लेख है। अर्ककीर्ति के गुरु का नाम विजयकीति और प्रगुरु का नाम श्री कीर्ति बताया गया है। पं० नाथूरामजी प्रेमी ने यह सम्भावना प्रकट की है कि शाकटायन पाल्यकीर्ति इसी परम्परा के थे और आश्चर्य नहीं कि वे अर्ककीति के शिष्य या उनके सधर्मा हों।
आन्तरिक साक्ष्यों के आधार पर अमोघवत्ति के यापनीय होने के सन्दर्भ में हम पूर्व में ही सूचित कर चुके हैं।४ अमोघवृत्ति पर प्रभाचन्द्र का न्यास है । यद्यपि यह ग्रंथ आज पूर्ण रूप में उपलब्ध नहीं है, फिर भी इतना सुस्पष्ट है कि इसके कर्ता प्रभाचन्द्र हैं और वे प्रभाचन्द्र न्यायकुमदचन्द्र के कर्ता प्रभाचन्द्र से भिन्न हैं। हमने आगे यह बताने का प्रयास किया है कि ये प्रभाचन्द्र सोदत्ति के लगभग ई० सन् ९८० के अभिलेख में उल्लेखित यापनीय संघ और कण्डूरगण के प्रभाचन्द्र ही हैं । न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता प्रभाचंद्र को न्यास का कर्ता मानना भ्रांतिपूर्ण है। इस अभिलेख में यापनीय कण्डूरगण का स्पष्ट उल्लेख है।५ अतः इनका यापनोय होना निर्विवाद है। इस प्रकार शाकटायन के शब्दानुशासन पर लिखी गई स्वोपज्ञ अमोघवृत्ति और न्यास दोनों ही यापनीय परम्परा के ग्रन्थ सिद्ध होते हैं । यह स्वाभाविक भी है कि यापनीय प्रभाचन्द्र अपनी हो परम्परा के शाकटायन की कृति पर टीका लिखे। इन्हीं यापनीय प्रभाचन्द्र का एक ग्रंथ तत्वार्थसूत्र भी है उसमें इन्हें बृहत्प्रभाचन्द्र (लगभग ई० सन् ९८०) कहा गया है, क्योंकि ये न्यायकुमुदचंद्र के कर्ता प्रभाचंद्र (ई० सन् १०२०) से पूर्ववर्ती एवं ज्येष्ठ थे ।
१. जैनसाहित्य और इतिहास, पं० नाथूराम जी प्रेमी पृ० १६१ २. जैन शिलालेख संग्रह भाग २, लेख क्रमांक १२४ । ३. जैन साहित्य और इतिहास, पं० नाथूराम जी प्रेमी पृ० १६७ । ४. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय , डॉ० सागरमल जैन पृ० २०७ ५. न शिलालेख संग्रह, भाग २ लेख क्रमांक १६० ।
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