SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यापनीय साहित्य : १९३ संयोगतो दोषमवाप जीवः परस्परं नैकविधानुबन्धि । तस्माद्विसंयोगमतो दुरन्तमाजीवितान्तादेहमुत्सृजामि ॥ १०२ ॥ सर्वेषु भूतेषु मनः समं मे वैरं न मे केनचिदस्ति किंचित् । आशां पुनः क्लेशसहस्त्र मूलां हित्वा समाधि लघु संप्रपद्ये ||१०३ || - वरांगचरित सर्ग ३१ तुलनीय - एगो मे सासओ अप्पा नाण-दंसणसंजुओ | सेसा मे बहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ २७ ॥ संजोगमूला जीवेणं पत्ता दुक्खपरंपरा । तम्हा संजोग संबंधं सव्वं भावेण वोसिरे ॥ २८ ॥ सम्मं मे सव्वभूएस वेरं मज्झ न केणई | आसाओ वोसिरित्ताणं समाहिं पडिवज्जए || २२ ॥ ये तीनो गाथायें आतुरप्रत्याख्यान से सीधे वरांगचरित में गईं या मूलाचार के माध्यम से वरांगचरित में गईं यह एक अलग प्रश्न है । मूलाचार यापनीय ग्रन्थ है, अतः यदि ये गाथायें मूलाचार से भी ली गई तो भी जटासिंहनन्दि और उनके ग्रन्थ वरांगचरित के यापनीय होने की ही पुष्टि होती है । यद्यपि कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी ये गाथायें पायी जाती हैं, किंतु इतना निश्चित है कि कुन्दकुन्द ने भी ये गाथायें मूलाचार से ही ली होगीं । पुनः मूलाचार में आतुरप्रत्याख्यान की लगभग सभी गाथायें समाहित कर ली गई हैं, अतः अन्ततोगत्वा तो ये गाथायें आतुर - प्रत्याख्यान से ही ली गई हैं । आवश्यक नियुक्ति की भी निम्न दो गाथाएँ वरांगचरित में मिलती हैं तुलनीय - हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ पासंतो पंगुलो दड्ढो धावमाणो अ संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधोय पंगू य वणे समिच्चा ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥ १०२ ॥ १३ --आतुरप्रत्याख्यान Jain Education International किया । अंधओ ॥ १०१ ॥ क्रियाहीनं च यज्ज्ञानं न तु सिद्धिं प्रयच्छति । परिपश्यन्यथा पङ्गुमुग्धो दग्धो दवाग्निना ॥ ९९ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy