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________________ १९२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय उत्तराध्ययन ३०/२-३ ३०/४-६ ३०/८-९ ३०/१०-११ ३०/१२ ३०/१३ ३०/१५ वरांगचरित ४/२-३ ४/२४-२५ यद्यपि सम्पूर्ण विवरण की दृष्टि से वरांगचरित का कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी विवरण उत्तराध्ययन की अपेक्षा विकसित प्रतीत होता है । इसी प्रकार की समानता स्वर्ग-नरक के विवरण में भी देखी जाती है । उत्तराध्ययन में ३६ वें अध्ययन की गाथा क्रमांक २८४ से २९६ तक वरांगचरित के नवें सर्ग के श्लोक १ से १२ तक किंचित् शाब्दिक परिवर्तन के साथ संस्कृत रूप में पायी जाती हैं। आश्चर्य की बात यह है कि जटासिंहनन्दि भी आगमों के अनुरूप बारह देवलोकों की चर्चा करते हैं । तुलनीय - ४/२५-२६-२७ ४/२८-२९ ४ / ३३ (आंशिक) ४ / ३५ (आंशिक) ४/३७ इसी प्रकार प्रकीर्णक साहित्य की भी अनेक गाथाएँ वरांगचरित में अपने संस्कृत रूपान्तर के साथ पायी जाती हैं, देखेंदंसणभट्टो भट्ठो, न हु भट्ठो होइ चरणपब्भट्ठो । दंसण मणुपत्तस्स उ परियडणं नत्थि संसारे ॥ ६५ ॥ दंसणभट्ठो भट्ठो, दंसणभट्टस्स नत्थि निव्वाणं । सिज्झति चरणरहिया, दंसणरहिया न सिज्झति ।। ६६ ।। Jain Education International दर्शनाभ्रष्ट एवानु भ्रष्ट इत्यभिधीयते । न हि चारित्रविभ्रष्टो भ्रष्ट इत्युच्यते बुधैः ॥ ९६ ॥ महता तपसा युक्तो मिथ्यादृष्टिरसंयतः । तस्य सर्वज्ञसंदृष्ट्या संसारोऽनन्त उच्यते ॥ ९७ ॥ - वरांगचरित सर्ग २६ इसी प्रकार वरांगचरित के निम्न श्लोक आतुर प्रत्याख्यान में पाये जाते हैं - भक्तपरिज्ञा एकस्तु मे शाश्वतिकः स आत्मा सदृष्टिसज्ज्ञानगुणैरुपेतः । शेषाश्च मे बाह्यतमाश्च भावाः संयोगसल्लक्षणलक्षितास्ते ॥ १०१ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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