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यापनीय साहित्य : १९१ वरांगचरित सन्मति तर्क वरांगचरित सन्मति तर्क २६/६० १/२१
२६/९० २६/६१ १/२२
२६/९९ ३/६७ २६/६२ १/२३-२४ २६/१०० ३/६८ २६/६३
१/२५ २६/६४ १/५१
वरांगचरितकार जटासिंहनन्दि द्वारा सिद्धसेन का यह अनुसरण इस बात का सूचक है कि वे सिद्धसेन से निकट रूप से जुड़े हुए हैं। सिद्धसेन का प्रभाव श्वेताम्बरों के साथ-साथ यापनीयों और यापनीयों के कारण पुन्नाटसंघीय आचार्यों एवं पंचस्तूपान्वय के आचार्यों पर भी देखा जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि जटासिंहनन्दि उस यापनीय अथवा कूर्चक परम्परा से सम्बन्धित रहे होंगे जो अनेक बातों में श्वेताम्बरों की आगमिक परम्परा के निकट थी। यदि सिद्धसेन श्वेताम्बर और यापनीयों के पूर्वज आचार्य हैं तो यापनीय आचार्यों के द्वारा उनका अनुसरण संभव है।
यद्यपि वरांगचरित के इसी सर्ग की दो गाथाओं पर समन्तभद्र का भी प्रभाव देखा जाता है, किन्तु सिद्धसेन की अपेक्षा यह प्रभाव अल्प मात्रा में है।'
(७) वरांगचरित में अनेक संदर्भो में आगमों, प्रकीर्णकों एवं नियुक्तियों का अनुसरण भी किया गया है। सर्वप्रथम तो उसमें कहा गया है-"उन वरांगमुनि ने अल्पकाल में ही आचारांग और अनेक प्रकीर्णकों का सम्यक् अध्ययन करके क्रमपूर्वक अंगों एवं पूर्वो का अध्ययन किया ।" इस प्रसंग में प्रकीर्णकों का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। विषयवस्तु को दृष्टि से तो इसके अनेक सर्गों में आगमों का अनुसरण देखा जाता है। विशेष रूप से स्वर्ग, नरक, कर्म-सिद्धान्त आदि सम्बन्धी विवरण में उत्तराध्ययनसूत्र का अनुसरण हुआ है। जटासिंहनन्दि ने चतुर्थ सर्ग में जो कर्म सिद्धान्त का विवरण दिया है उसके अनेक श्लोक अपने प्राकृत रूप में उत्तराध्ययन के तीसवें कर्मप्रकृति नामक अध्ययन में यथावत् मिलते हैं१. देखें-वरांगचरित २६।८२-८३ तुलनीय स्वयम्भूस्तोत्र (समंतभद्र),
१०२-१०३ २. आचारमादौ समधीत्य धीमान्प्रकीर्णकाध्यायमनेकभेदम् । अङ्गानि पूर्वाश्च यथानुपूामल्परहोभिः सममध्यगीष्ट ॥
-वरांगचरित, ३१/१८
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