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________________ १९० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय अप्रकाशित कन्नड़ ग्रन्थ के आधार पर यह भी मान लिया है कि कोप्पल या कोपन यापनीयों का मुख्य पीठ था। अतः कोप्पल/कोपन से सम्बन्धित होने के कारण जटासिंहनन्दि के यापनीय होने की सम्भावना अधिक प्रबल प्रतीत होती है। (५) यापनीय परम्परा में मुनि के लिए 'यति' का प्रयोग अधिक प्रचलित रहा है। यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन को 'यतिग्रामाग्रणी' कहा गया है । हम देखते हैं कि जटासिंहनन्दि के इस वरांगचरित में भी मुनि के लिए यति शब्द का प्रयोग बहुतायत से हुआ है। ग्रन्थकार की यह प्रवृत्ति उसके यापनीय होने का संकेत करती है। (६) वरांगचरित में सिद्धसेन के सन्मति तर्क का बहुत अधिक अनुसरण देखा जाता है। अनेक आधारों से यह सिद्ध होता है कि सन्मति तर्क के कर्ता सिद्धसेन किसी भी स्थिति में दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध नहीं रहे हैं। यदि वे ५वीं शती के पश्चात् हए हैं तो निश्चित ही श्वेताम्बर हैं और यदि उसके पूर्व हुए हैं तो अधिक से अधिक श्वेताम्वर और यापनीय परम्परा की पूर्वज उत्तर भारतीय निर्ग्रन्थ धारा से सम्बद्ध रहे हैं। उनके सन्मति तर्क में क्रमवाद के साथ-साथ युगपद्वाद की समीक्षा, आगमिक परम्परा का अनुसरण, कृति का महाराष्ट्री प्राकृत में होना आदि तथ्य इसी संभावना को पुष्ट करते हैं । वरांगचरित के २६वें सर्ग के अनेक श्लोक सन्मतितर्क के प्रथम और ततीय काण्ड को गाथाओं का संस्कृत रूपान्तरण मात्र लगते हैं। वरांगचरित सन्मति तर्क वरांगचरित सन्मति तर्क २६/५२ २६/६५ १/५२ २६/५३ १/९ २६/६९ ३/४७ २६/५४ २६/७० २६/५५ १/१२ २६/७१ २६/५७ १/१७ २६/७२ ३/५३ २६/५८ १/१८ २६/७८ १/११ ३/५४ ३/५५ १. देखें-यापनीय संघ पर कुछ और प्रकाश, ए० एन० उपाध्ये, अनेकांत, वीर निर्वाण विशेषांक १९७५ ।। २. यतीनां (३/७), यतीन्द्र (३/४३), यतिपतिना (५/११३), यति (५/११४), यतिना (८/६८), वीरचर्या यतयोबभूवुः (३०/६१), यतिपति (३०/९९), यतिः (३१/२१)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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