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________________ १९४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय तौ यथा संप्रयुक्तौ तु दवाग्निमधिगच्छतः। तथा ज्ञानचारित्राभ्यां संसारान्मुच्यते पुमान् ॥ १०१॥ -वरांगचरित सर्ग २६ आगम, प्रकीर्णक और नियुक्ति साहित्य का यह अनुसरण जटासिंहनन्दि और उनके ग्रन्थ को दिगम्बरेतर यापनीय या कूर्चक सम्प्रदाय का सिद्ध करता है। __(८) जटासिंहनन्दि ने न केवल सिद्धसेन का अनुसरण किया है, अपितु उन्होंने विमलसूरि के पउमचरियं का भी अनुसरण किया है। चाहे यह अनुसरण उन्होंने सीधे रूप से किया हो या रविषेण के पद्मचरित के माध्यम से किया हो, किन्तु इतना सत्य है कि उन पर यह प्रभाव आया है। वरांगचरित में श्रावक के व्रतों को जो विवेचना उपलब्ध होती है वह न तो पूर्णतः श्वेताम्बर परम्परा के उपासकदशा के निकट है और न पूर्णतः दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य तत्त्वार्थ के पूज्यपाद देवनन्दी के सर्वार्थसिद्धि के मलपाठ के निकट है । अपितु वह विमलसूरि के पउमचरियं के निकट हैं। पउमचरियं के समान हो इसमें भी देशावकासिक व्रत का अन्तर्भाव दिग्व्रत में मानकर उस रिक्त स्थान को पूर्ति के लिए संलेखना को बारहवाँ शिक्षाव्रत माना गया है । कुन्दकुन्द ने भी इस परम्परा का १. स्थूलामहिंसामपि सत्यवाक्यमचोरतादाररतिव्रतं च । भोगोपभोगार्थपरिप्रमाणमनर्थदिग्देशनिवृत्तितां च ॥ सामायिकं प्रोषधपात्रदानं सल्लेखनां जीवितसंशये च । गृहस्थधर्मस्य हि सार एषः संक्षेपतस्तेऽभिनिगद्यते स्म । देखिए-वरांगचरित, २२/२९-३०, वरांगचरित, १५ / १११-१२५ । तुलनीय-पञ्च य अणुव्वयाई, तिण्णेव गुणव्वयाई भणियाइं । सिक्खावयाणि एत्तो, चत्तारि जिणोवइट्ठाणि ॥ ११२॥ थूलयरं पाणि वहं, मूसावायं अदत्तदाणं च । परजुवईण निवित्ती, संतोसवयं च पञ्चमयं ॥ ११३ ।। दिसिविदिसाण य नियमो, अणत्थदण्डस्थ वज्जणं चेव । उवभोगपरिमाणं, तिण्णेव गुणव्वया ऐए ॥ ११४ ।। सामाइयं च उववासपोसहो अतिहिसंविभागो य । अन्तेसमाहिमरणं, सिक्खासु वयाइँ चत्तारि ॥ ११५ ॥ -पउमचरियं उद्देशक १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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