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________________ १८८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय (२) जटासिंहनन्दि यापनीय परम्परा से सम्बद्ध रहे हैं, इस सम्बन्ध में जो बाह्य साक्ष्य उपलब्ध हैं उनमें प्रथम यह है कि कन्नड़ कवि जन्न ने जटासिंहनन्दि को 'काणरगण' का बताया है। अनेक अभिलेखों से यह सिद्ध होता है कि यह काणूरगण प्रारम्भ में यापनीय परम्परा का एक गण था । इस गण का सर्वप्रथम उल्लेख सौदत्ती के ई० सन् दसवीं शती (९८०) के एक अभिलेख से मिलता है। इस अभिलेख में गण के साथ यापनीय संघ का भी स्पष्ट निर्देश है।' यह सम्भव है कि इस गण का अस्तित्व इसके पूर्व सातवीं-आठवीं शती में भी रहा हो। डा० उपाध्ये जन्न के इस अभिलेख को शंका की दृष्टि से देखते हैं। उनकी इस शंका के दो कारण हैं-एक तो यह कि गणों की उत्पत्ति और इतिहास के विषय में पर्याप्त जानकारी का अभाव है, दूसरे जटासिंहनन्दि जन्न के समकालीन भी नहीं हैं। यह सत्य है कि दोनों में लगभग पाँच सौ वर्ष का अन्तराल है किन्तु मात्र कालभेद के कारण जन्न का कथन भ्रान्त हो, हम डा० उपाध्ये के इस मन्तव्य से सहमत नहीं हैं। यह ठोक है कि यापनीय परम्परा के काणूर आदि कुछ गणों का उल्लेख आगे चलकर मूलसंघ और कून्दकून्दान्वय के साथ भी हुआ है किन्तु इससे उनका मूल में यापनीय होना अप्रमाणित नहीं हो जाता। काणरगण के ही १२वीं शताब्दी तक के अभिलेखों में यापनीय संघ के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। ( देखें जैन शिलालेख संग्रह भाग ५ लेख क्रमांक ११७ ) इसके अतिरिक्त स्वयं डा० उपाध्ये ने १२वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के कुछ शिलालेखों में काणरगण के सिंहनन्दि के उल्लेख को स्वीकार किया है। यद्यपि इन लेखों में काणूरगण के इन सिंहनन्दि को कहीं मूलसंघ और कहीं कुन्दकुन्दान्वय का बताया गया है। लेकिन स्मरण रखना होगा कि यह लेख उस समय का है जब यापनीय सहित सभी अपने को मूलसंघ से जोड़ने लगे थे। पुनः इन लेखों में सिंहनन्दि का काणूरगण १. ""यापनीयसंघप्रतीतकण्डूगर्गणाब्धि""। जैन शिलालेख संग्रह भाग २ लेख क्रमांक १६० । २. देखें-वरांगचरित, भूमिका ( अंग्रेजी ), पृ० १६ । ३. देखें-जैन शिलालेख संग्रह भाग २ लेख क्रमांक २६७, २७७, २९९ । ४. वही-भाग २ लेख क्रमांक २६७, २७७, २९९ । ज्ञातव्य है कि काणरगण को मूल संघ, कुन्दकुन्दान्वय और मेषपाषाण गच्छ से जोड़ने वाले ये लेख न केवल परवर्ती हैं अपितु इनमें एकरूपता भी नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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