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________________ यापनीय साहित्य : १८७ सन् १२०९ ) में,' गुणवर्म द्वितीय ने अपने पुष्पदन्तपुराण ( ई० सन् (१२३०)२ में, कमलभवन ने अपने शांतिनाथपुराण (ई० सन् १२३३)3 में, महाबल कवि ने अपने नेमिनाथपुराण (ई० सन् १२५४) में जटासिंहनन्दि का उल्लेख किया है। इन सभी उल्लेखों से यह ज्ञात होता है कि जटासिंहनन्दि यापनोय, श्वेताम्बर और दिगम्बर तीनों ही परम्पराओं में मान्य रहे हैं। फिर भी सर्वप्रथम पुन्नाटसंघीय जिनसेन के द्वारा जटासिंहनन्दि का आदरपूर्वक उल्लेख यह बताता है कि वे सम्भवतः यापनीय परम्परा से सम्बन्धित रहे हों" क्योंकि पुन्नाटसंघ का विकास यापनीय पुन्नागवृक्षमूलगण से ही हुआ है । पुनः श्वेताम्बर आचार्य उद्योतनसरि ने यापनीय रविषण और उनके ग्रन्थ पद्मचरित के साथ-साथ जटासिंहनन्दि के वरांगचरित का उल्लेख किया है। इससे ऐसी कल्पना की जा सकती है कि दोनों एक ही परम्परा के और समकालिक रहे होगें। पुनः श्वेताम्बर और यापनीयों में एक-दूसरे के ग्रन्थों के अध्ययन की परम्परा रही है। यापनीय आचार्य प्राचीन श्वेताम्बर आचार्यों के ग्रन्थों को पढ़ते थे। जटासिंहनन्दि के द्वारा प्रकीर्णकों, आवश्यकनियुक्ति तथा सिद्धसेन के सन्मतितर्क और विमलसरि के पउमचरिय का अनुसरण यही बताता है कि वे यापनीय सम्प्रदाय से सम्बन्धित रहे होंगे। क्योंकि यापनीयों द्वारा इन ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन एवं अनुसरण किया जाता था, इसके अनेक प्रमाण दिये जा सकते हैं। यह हो सकता है कि जटासिंहनन्दि यापनीय न होकर कूर्चक सम्प्रदाय से सम्बन्धित रहे हों और यह कर्चक सम्प्रदाय भी यापनियों की भाँति श्वेताम्बरों के अति निकट रहा हो। यद्यपि इस सम्बन्ध में विस्तृत गवेषणा अभी अपेक्षित है। १. वंद्यर् जटासिंहणांद्याचार्यादींद्रणंद्याचार्यादिमुनिपराकाणूर्गणंद्यपृथिवियॉळो गॅल्लं ॥--अनन्तनाथपुराण, १/१६ ।। २. नडॅवळ्यिोळ तन्नं समं बउँदारू नउँदरिल्ल गडमॅतर्देषु । नुडियु नडेदुव पदुळिके जटासिंहणंदि मुनिपुगवना । पुष्पदंतपुराण, १/२९ ३. कार्यविदर्हब्दल्यात्रार्य-जटासिंहनंदि नामोद्दामाचार्यवरगृध्रपिछाचार्यर चरणा रविंदवृदस्तोत्रं ।।-शांतिनाथपुराण, १/१९ ४. धैर्यपरगृध्र पिंछाचार्यर जटासिंहनंदि जगतीख्याताचार्यर प्रभावमत्याश्चर्यमदं पाँगळ वडब्जजंगमसाध्यं ।। नेमिनाथपुराण, १/१४ ५. हरिवंश (जिनसेन), १/३५ ।। ६. देखें-जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय, प्रो० सागरमलजैन पृ० ३६-३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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