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________________ १८६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय १ 3 4 १. जिनसेन प्रथम ( पुन्नाटसंघीय ) ने अपने हरिवंशपुराण ( ई० सन् ७८३ ) में, जिनसेन द्वितीय ( पंचस्तूपान्वयी ) ने अपने आदिपुराण में, उद्योतनसूरि ( श्वे० आचार्य ) ने अपनी कुवलयमाला ( ई० सन् ७७८ ) में, ३ रात्र मल्ल ने अपने कन्नड़ गद्य ग्रन्थ त्रिषष्टिशलाकापुरुष ( ई० सन् ९७४-८४ ) में, धवल कवि ने अपभ्रंश भाषा में रचित अपने हरिवंश में जटिलमुनि अथवा उनके वरांगचरित का उल्लेख किया है । इनके अतिरिक्त भी पम्प ने अपने आदिपुराण ( ई० सन् ९४१ ) में, नयनसेन ने अपने धर्मामृत ( ई० सन् १९१२ ) ७ में और पार्श्वपंडित ने अपने पार्श्वपुराण ( ई० सन् १२०५ ) मेंट, जन्न ने अपने अनन्तनाथपुराण ( ई०. सर्वाङ्गेर्वराङ्गचरितार्थवाक् । कस्य नोत्पादयेद्गाढमनुरागं स्वगोचरम् ॥ १. वरांगनेव २. काव्यानुचिन्तने यस्य जटाः प्रचलवृत्तयः । अर्थान्स्मानुवदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात् ।। - आदिपुराण ( जिनसेन ), १ / ५० ३. जेहि कए रमणिज्जे वरंग पउमाण चरियवित्थारे । कहवण सलाहणिजे ते कइणो जडिय - रविसेणे ॥ कुवलयमाला, पृ० ४ - हरिवंशपुराण ( जिनसेन ), १ / ३४-३५. ४. ऐदनॅय श्रोतृवॅवों जटासिंहनद्याचार्यर वृत्तं ६. आर्यनुत- गृध पिछाचार्य ५. मुणिमहसेणु सुलोयणु जेण पउमचरिउ मुणिरविसेणेण । जिणसेणेण हरिवंसु पवित्तु जडिलमुणिणा वरंगचरितु ॥ - उद्धृत, वरांगचरित, भूमिका पृ० ११ । Jain Education International हरिवंश, उद्धृत वरांगचरित, भूमिका पृ० १० जटाचार्य — विश्रुतश्रुतकीर्त्याचार्य पुरस्सरमप्पाचार्य परंपरॅय कुडुम भव्योत्सवमं ।। आदिपुराण, १/१२ ७. वर्यर्लोकोत्तमर्भाविसुवॉडन धरत्युन्नतकॉड कुदाचार्यचरित्ररत्नाकर रधिकगुणर्सजासिंहनंद्याचार्य श्रकूचिभट्टारक रुदितयशमिक्कपेपिंग लोकाश्चर्य निष्कर्म - रॅम्मं पॉरमडिगँ संसारकांतारदिदं ॥ - धर्मामृत, १/१३ ८. बिदिरपोदर तॉलयॅनॅ तू — गिदॉडाबिदिजिनमुनिप - जटाचार्यर धैर्यद पॅ गॅदुपसर्गदयेन निसि नगदुमिगँ सोगयिसिदं ॥ For Private & Personal Use Only -- पार्श्वपुराण, १/१४ www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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