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यापनीय साहित्य : १८५
स्वीकार करते हैं । स्वयम्भू की धार्मिक उदारता की विस्तृत चर्चा प्रो० भयाणी जी ने पउमचरिउ की भूमिका में की है । पाठक उसे वहाँ देख सकते है । "
जटासिंहनन्दि का वराङ्गचरित और उसकी परम्परा
जटासिंहनन्दि और उनके वरांगचरित के दिगम्बर परम्परा से भिन्न यापनीय अथवा कूर्चक संघ से सम्बन्धित होने के कुछ प्रमाण उपलब्ध होते हैं । यद्यपि श्रीमती कुसुम पटोरिया के अनुसार वरांगचरित में ऐसा कोई भी अन्तरंग साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, जिससे जटासिंहनन्दि और उनके ग्रन्थ को यापनीय कहा जा सके, किन्तु मेरी दृष्टि में श्रीमती कुसुम पटोरिया का यह कथन समुचित नहीं है । सम्भवतः उन्होंने मूल ग्रन्थ को देखने का प्रयत्न ही नहीं किया और द्वितीयक स्रोतों से उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर ऐसा मानस बना लिया । मैंने यथासम्भव मूल ग्रन्थ को देखने का प्रयास किया है और उसमें मुझे ऐसे अनेक तत्व मिले हैं, जिनके आधार पर वरांगचरित और उसके कर्ता जटिलमुनि या जटासिंहनन्दि को दिगम्बर परम्परा से भिन्न यापनीय अथवा कूर्चक परम्परा से सम्बद्ध माना जा सकता है। इस विवेचन में सर्वप्रथम तो मैं श्रीमती कुसुम पटोरिया के द्वारा प्रस्तुत उन बाह्य साक्ष्यों की चर्चा करूँगा, जिनके आधार पर जटासिंहनन्दि के यापनीय होने की सम्भावना को पुष्ट किया जाता है। उसके पश्चात् मूल ग्रन्थ में मुझे दिगम्बर मान्यताओं से भिन्न, जो तथ्य उपलब्ध हुए हैं, उनकी चर्चा करके यह दिखाने का प्रयत्न करूँगा कि जटासिंहनन्दि यापनीय अथवा कूर्चक परम्परा में से किसी एक से सम्बद्ध रहे होंगे ।
जासिंहनन्दि यापनीय संघ से सम्बन्धित थे या कूर्चक संघ से सम्बन्धित थे, इस सम्बन्ध में तो अभी और भी सूक्ष्म अध्ययन की आवश्यकता है । किन्तु इतना निश्चित है कि वे दिगम्बर परम्परा से भिन्न अन्य किसी परम्परा से सम्बन्धित हैं, क्योंकि उनकी अनेक मान्यताएँ वर्तमान दिगम्बर परम्परा के विरोध में जाती हैं। आयें इन तथ्यों की समीक्षा करें
१. पउमचरिउ, सं० डॉ० हरिवल्लभ भयाणी, सिंधी जैन ग्रन्थमाला ग्रन्थांक ३४ भारतीय विद्याभवन बम्बई, भूमिका ( अंग्रेजी) पृ० १३-१५
२. यापनीय और उनका साहित्य, डॉ० कुसुम पटोरिया, पृ० १५७-१५८ ।
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