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१८४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय है।' अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि उस क्षेत्र पर यापनीयों का सर्वाधिक प्रभाव था। अतः स्वयम्भू के यापनीय संघ से सम्बन्धित होने की पुष्टि क्षेत्रीय दृष्टि से भी हो जाती है।
काल की दृष्टि से स्वयम्भू ७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और ८वीं शती के पूर्वार्ध के कवि है। यह स्पष्ट है कि इस काल में यापनीय संघ दक्षिण में न केवल प्रवेश कर चका था, अपितु वहाँ प्रभावशाली भी बन गया था । अतः काल की दृष्टि से भी स्वयम्भू को यापनीय परम्परा से सम्बन्धित मानने में कोई बाधा नहीं आती है। __ साहित्यिक प्रमाण की दृष्टि से पुष्पदन्त के महापुराण की टीका में स्वयम्भू को स्पष्ट रूप से यापनीय (आपुली) बताया गया है। उसमें लिखा है-'सयंभू पत्थडिबद्ध कर्ता आपलीसंघीयः' इस कथन से यह निष्कर्ष निकलता है कि वे यापनीय संघ से सम्बन्धित थे।
स्वयम्भ के यापनीय संघ से सम्बन्ध होने के लिए प्रो० हरिवल्लभयाणी ने एक और महत्त्वपूर्ण प्रमाण यह दिया है कि यापनीय संघ वैचारिक दृष्टि से उदार और समन्वयवादी था। यह धार्मिक उदारता और समन्वयशीलता स्वयम्भू के ग्रन्थों में विभिन्न स्थलों पर पाई जाती है, 'रिट्ठनेमि चरिउ' संधि ५५/३० और 'पउमचरिउ' संधि ४३/१९ में उनकी यह उदारता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। उनकी उदारता को सूचित करने के लिए हम यहाँ केवल एक ही गाथा दे रहे हैं
'अरहन्तु बुद्ध तुहुँ हरिहरन व, तुहँ अण्णाण तमोहरिउ ।
तुहुँ सुहंमु णिरन्जणु परमपउ, तुहुँ रविदम्भु सयम्भु सिउ ॥' दिगम्बर परम्परा धार्मिक दृष्टि से श्वेताम्बरों और यापनीयों की अपेक्षा अनुदार रही है, क्योंकि वह अन्यतैर्थिक मुक्ति को अस्वीकार करती है; जवकि श्वेताम्बर और यापनीय अन्यतैथिकों की मुक्ति को
१. पउमचरिउ, सं० डॉ० हरिवल्लभभयानी, सिंघी जैननथमाला ग्रन्थांक ३४,
भूमिका (अंग्रेजी) पृ० १३ २. वही, पृ० ९ ३. स्वघंभू पावंडीबद्ध रामायण कर्ता आपलीसंधीयः ।
-महापुराण पुष्पदंत १/९/५ टिप्पण
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