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यापनीय साहित्य : १८३ चरिउ के अन्त में जम्बू के बाद विष्णु नाम आया है, किन्तु यह अंश जसकित्ति द्वारा प्रक्षिप्त है ।
५. स्वयम्भू ने सीता के जीव का रावण एवं लक्ष्मण को प्रतिबोध देने सोलहवें स्वर्ग से तीसरी पृथ्वी में जाना बताया है। जबकि धवला टीका के अनुसार १२ वें से १६ वें स्वर्ग तक के देवता प्रथम पृथ्वी के चित्रा भाग से आगे नहीं जाते हैं ।
६. पउमचरिउ में अजितनाथ के वैराग्य का कारण म्लानकमल बताया गया है, जबकि त्रिलोकप्रज्ञप्ति में तारा टूटना बताया गया है ।
७. रविषेण के समान इन्होंने भी महावीर के चरणांगुष्ठ से मेरु के कम्पन का उल्लेख किया है । यह श्वेताम्बर मान्यता है ।
८. भगवान् के चलने पर देवनिर्मित कमलों का रखा जाना - भगवान् का एक अतिशय माना गया है । यह भी श्वेताम्बर मान्यता है ।
९. तीर्थंकर का मागधी भाषा में उपदेश देना । ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर मान्य आगम समवायांग में यह मान्यता है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार तो तीर्थंकर की दिव्यध्वनि खिरती है, जो सर्व भाषा रूप होती है ।
१०. दिगम्बर उत्तरपुराण में सगरपुत्रों का मोक्षगमन वर्णित है जबकि विमलसूरि के पउमचरियं के आधार पर रविषेण और स्वयम्भू ने भीम एवं भगीरथ को छोड़कर शेष का नागकुमार देव के कोप से भस्म होना बताया ।
सुश्री कुसुम पटोरिया के अनुसार इन वर्णनों के आधार पर स्वयम्भू यापनीय सिद्ध होते हैं ।
इस प्रकार इन सभी उल्लेखों में निकटता और दिगम्बर मान्यताओं से वे यापनीय परम्परा से सम्बद्ध रहे होंगे ।
स्वयम्भू को श्वेताम्बर मान्यता से भिन्नता यही सिद्ध करती है कि
पुनः स्वयम्भू मुनि नहीं, अपितु गृहस्थ ही थे, उनकी कृति 'पउमचरिउ' से जो अन्य सूचनाएँ हमें उपलब्ध होती है, उनके आधार भी पर उन्हें यापनीय परम्परा से सम्बन्धित माना जा सकता है ।
स्वयम्भू का निवास स्थल सम्भवतः पश्चिमोत्तर कर्नाटक रहा
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