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यापनीय साहित्य : १७३
है।' इस कथा में यह भी उल्लेख है कि नन्दिषेण ने दूसरों की वैयावृत्य तो की थी, किन्तु सल्लेखना के अवसर पर वे अपनी वैयावृत्य न तो स्वयं करते थे और न अन्य से करवाते थे । इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वे आचारांग में वर्णित द्वितीय विकल्प को लेकर साधना करते थे । इस सम्बन्ध में हरिवंश की श्वेतांबर मान्य आगमिक परम्परा से निकटता उसके यापनीय होने का सबसे बड़ा प्रमाण है ।
४. जिनसेन और हरिषेण के हरिवंशपुराण के यापनीय मानने का एक आधार यह भी है कि उसमें ग्यारह अंग, दृष्टिवाद तथा चौदह पूर्व का उल्लेख तो है ही, किन्तु उसमें षडावश्यक ग्रन्थों, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प, व्यवहार, कल्पाकल्प, पुंडरीक, महापुंडरीक और निशीथ का का भी दो स्थलों पर स्पष्ट रूप से उल्लेख हुआ है । यह स्पष्ट है कि तीनको छोड़कर ये ग्रन्थ आज भी श्वेतांबर परंपरा में उपलब्ध हैं । यापनीय परंपरा में भी
१. गत्वागोचरीवेलायामानीय सहसाददौ । हरिवंशपुराण १८/१६४ । २. अङ्गप्रविष्टतत्त्वार्थं प्रतिपाद्य जिनेश्वरः ।
॥१०१॥
अङ्गबाह्यमवोचत्तत्प्रतिपाद्यार्थ रूपतः सामायिक यथार्थाख्यं सचतुर्विंशतिस्तवम् । वन्दनां च ततः पूतां प्रतिक्रमणमेव च ॥ १०२ ॥ वैनयिकं विनेयेभ्यः कृतिकर्म ततोऽवदत् । दशवेकालिकां पृथ्वीमुत्तराध्ययनं तथा ॥ १०३ ॥ तं कल्पः यवहारं च कल्पाकल्पं तथा महाकल्पं च पुण्डरीकं च सुमहापुण्डरीककम् ॥ १०४॥ तथा निषद्यकां प्रायः प्रायश्चित्तोपवर्णनम् । जगत्त्रयगुरुः प्राह प्रतिपाद्य हितोद्यतः ॥ १०५॥
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- हरिवंशपुराण १।१०१-१०५.
जिनस्तव विधानाख्यः स चतुर्विंशतिस्तवः । वर्णको वन्दना वन्द्यवन्दनाविधिवादिनी || द्रव्ये क्षेत्रे च कालादौ कृतावद्यस्य शोधनम् । प्रतिक्रमणमाख्याति प्रतिक्रमणनामकम् ॥ दर्शनज्ञानचारित्रतपोवीयपचारिकम् } पञ्चधाः विनयं वक्ति तद् वैनयिकनामकम् ।। चतुः शिरस्त्रिद्विनतं द्वादशावर्त मेव च । कृतिकर्माख्यमाचष्टे कृतिकर्मविधिं परम् ॥
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