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१६८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
का स्पष्ट उल्लेख है । इस कथानक के अनुसार रुक्मिणी ने संयमश्री नामक आर्यिका के पास शुद्ध तप करके तीर्थंकर गोत्र का बन्धन किया । दिगम्बर परम्परा में स्त्री के द्वारा तीर्थंकर नामकर्म के बन्धन का भी उल्लेख नहीं मिलता है, जबकि श्वेताम्बर मान्य आगम और यापनीय परम्परा में अनेक स्त्रियों द्वारा तीर्थंकर गोत्र अर्जित करने के उल्लेख हैं । अतः स्त्री के द्वारा तीर्थंकर नामकर्म के बन्धन का उल्लेख होने से यह कृति यापनीय ही सिद्ध होती है ।
(५) कथाकोश को ५७ वीं कथा में गृहस्थ- मुक्ति का भी उल्लेख मिलता है । उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत से युक्त तथा मौनव्रत से समन्वित सिद्धिभक्ति से कोई अणुव्रत धारी सिद्धि को प्राप्त होता है । इस प्रकार यहाँ गृहस्थ मुक्ति का भी समर्थन देखा जाता है, जो वस्तुतः श्वेताम्बर या यापनीय मान्यता ही हो सकती है | (६) प्रस्तुत कृति में स्त्री के द्वारा सर्वपरिग्रहत्याग का उल्लेख भी हुआ है । कथाकोश की ५७ वीं कथा में ही रोहिणी और महादेवी के द्वारा सर्व परिग्रह के त्याग का उल्लेख है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार स्त्री वस्त्र रूप परिग्रह का त्याग नहीं कर सकती और यदि वह वस्त्र का त्याग नहीं कर सकती है तो फिर सर्वपरिग्रह की त्यागी भी नहीं मानी जा सकती। अनेक दिगम्बर आचार्यों ने उसे उपचार से ही महाव्रती माना है, यथार्थ में नहीं । जबकि श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा
स्त्री को वस्त्र होते हुए भी सर्वपरिग्रह का त्यागी कहा गया है । महाव्रतारोपण करते समय उसे अपरिग्रह महाव्रत हो ग्रहण करवाया जाता है, परिग्रहपरिमाण व्रत नहीं । वस्त्र होते हुए भी सर्वपरिग्रह का त्याग सम्भव है, यह श्वेताम्बर और यापनोय मान्यता है । अतः बृहत्कथाकोश यापनीय है ।
(७) इसमें एक स्थान पर आर्थिकादि के वस्त्रदान को भी चर्चा है
१. बद्ध्वा तीर्थङ्करं गोत्रं तपः शुद्ध विधाय च ।
after स्त्रीत्वमादाय दिवि जातो सुरो महान् ।। बृहत्कथाकोश १०८ / १२५ ॥ २. अणुव्रतधरः कश्चित् गुणशिक्षाव्रतान्वितः ।
सिद्धिभक्तो व्रजेत् सिद्धिं मौनव्रत समन्वितः ॥ वही ( ५७/५६७ )
३. रोहिणी च महादेवी हित्वा सर्वं परिग्रहम् । वासुपूज्यं जिनं नत्वा सुमत्यन्ते तपोऽग्रहीत् ॥ वही ५७/५८२ ।।
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