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२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
आलेख उसी उदासीनता को तोड़ने का एक प्रयास मात्र है । आशा है जैन - विद्या के विद्वान् इस दिशा में पुनः सक्रिय होंगे।
आज विशृङ्खलित होते हुए जैन समाज के लिए इस सम्प्रदाय का ज्ञान और भी आवश्यक है, क्योंकि इस सम्प्रदाय को मान्यताएँ आज भी जैनधर्म की दिगम्बर और श्वेताम्बर शाखाओं के बीच योजक कड़ी बन सकती हैं । दुर्भाग्य से आज भी अनेक जैन विद्वान् और मुनिजन यह नहीं जानते हैं कि जैनधर्म का एक ऐसा भी सम्प्रदान, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर के मध्य एक योजक कड़ी के रूप में विद्यमान था एवं लगभग १४०० वर्षों तक अपने को जीवित बनाये रखकर आज से लगभग ६०० वर्ष पूर्व काल के गर्भ में ऐसा विलीन हो गया कि आज लोग उसका नाम तक भी नहीं जानते हैं । आज जैनधर्म में 'यापनीय' परम्परा का कोई भी अनुयायी शेष नहीं है । आज यह परम्परा मात्र इतिहास को वस्तु बनकर रह गयी है । किन्तु इनके द्वारा स्थापित मन्दिर एवं मूर्तियाँ तथा सृजित साहित्य सहज ही आज हमें उसका स्मरण करा देते हैं। आज जब जैन धर्म में साम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढमूल होता जा रहा है, यापनीय संघ के इतिहास और उनकी मान्यताओं का बोध न केवल जैन संघ में समन्वय का सूत्रपात कर सकता है, वरन् ट्टते हुए जैन संघ को पुनः एकता की कड़ी में जोड़ सकता है । वस्तुतः 'यापनीय' परम्परा वह सेतु है, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर के बीच की खाई को पाटने में आज भी महत्त्व - पूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। अग्रिम पंक्तियों में हम ऐसे महत्त्वपूर्ण और समन्वयवादी सम्प्रदाय के सन्दर्भ में गवेषणात्मक दृष्टि से कुछ विचार करने का प्रयत्न करेंगे । यापनीय शब्द का अर्थ
भाषा एवं उच्चारण भेद के आधार पर आज हमें 'यापनीय' शब्द के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं यथा - यापनीय, जापनीय, यपनी, आपनीय, यापुलिय, आपुलिय, जापुलिय, जावुलोय, जाविलिय, जावलिय, जावलिगेय आदि आदि ।' 'यापनीय' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग हमें जैन आगम साहित्य और पाली त्रिपिटक साहित्य में प्राप्त होता है । प्राकृत और पाली साहित्य में 'यापनाय ' शब्द का प्रयोग कुशल-क्षेम पूछने के प्रसंग में ही
१. ए० एन० उपाध्ये : जैन सम्प्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ और प्रकाश, अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४६
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