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________________ विषय-प्रवेश : ३ हुआ है। दूसरों से कुशल-क्षेम पूछते समय यह पूछा जाता था कि आपका 'यापनीय' कैसा है ( कि यापनीयं ?)। 'भगवती' नामक जैन आगम में यापनीय शब्द का प्राकृत रूप 'जवनिज्ज' प्राप्त होता है। उसमें सोमिल नामक ब्राह्मण भगवान् महावीर से प्रश्न करता है-हे भन्ते । आपकी यात्रा कैसी हुई ? आपका यापनीय कैसा है ? आपका स्वास्थ्य (अव्वावह) कैसा है ? आपका विहार कैसा है ? भगवती और ज्ञाताधर्मकथा में इस प्रसंग में दो प्रकार के यापनीयों की चर्चा भी हुई है-इन्द्रिय यापनीय और नो-इन्द्रिय यापनीय । इन्द्रिय यापनीय को व्याख्या करते हुए भगवान् महावीर ने कहा था कि मेरी श्रोत्र आदि पाँचों इन्द्रियाँ व्याधिरहित एवं मेरे नियन्त्रण में हैं। इसी प्रकार नो-इन्द्रिय यापनीय को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था कि मेरे क्रोध, मान, माया एवं लोभ विच्छिन्न या निमल हो गये हैं, अब वे अभिव्यक्त या प्रकट नहीं होते हैं । ___उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भगवतोसूत्र में इन्द्रिय और मन की नियन्त्रित एवं शान्त स्थिति के अर्थ में ही यापनीय शब्द का प्रयोग हुआ है। इन्द्रियों की वृत्तियों और मन को वासनाओं का शान्त एवं नियन्त्रित होना ही यापनीय की कुशलता १. जत्ता ते भंते ? जवणिज्जं ( ते भंते ? ) अव्वाबाहं ( ते भंते ) फासुय विहारं ( ते भंते ? ) ? सोमिला ! जत्ता वि मे, जवणिज्जं पि मे, अव्वावाहं पि मे, फासुयविहारं पि मे। भगवई (लाडनूं) १०।२०६-२०७ २. कि ते भंते ! जवणिज्ज ? सीमिला ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा इंदियजवणिज्जे य, नोइंदियजवणिज्जे य ॥ से कि ते इंदियजवणिज्जे ? इंदियजवणिज्जे-जं मे सोइंदिय-क्खिदिय-धाणिदिय-जिभिदियफासिदियाई निरुवहयाई वसे वटुंति, सेत्त इंदियजवणिज्जे । से कि तं नोइंदियजवणिज्जे ? नो-इंदियजवणिज्जे जं मे कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा नो उदीरेंति, सेत्तं नोइ दियजवणिज्जे सेत्तं जवणिज्जे । भगवई (लाडनूं) १०।२०८-२१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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