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१६२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय आलोकित पान-भोजन नामक प्रथम व्रत की भावना में करती है । यहाँ विशेष रूप से यह भी ज्ञातव्य है कि इस सूत्र में प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाओं में मनगुप्ति, वचनगुप्ति, कायसंयम, ईर्या तथा एषणा समिति का उल्लेख हआ है-उसमें आलोकित पान-भोजन का उल्लेख नहीं है। ( देखें, पृ० १३१-३२)
(४) इसमें 'एऊणविसाए णाहाज्झयणेसु' कहकर दो गाथाओं में ज्ञातासूत्र के १९ अध्ययनों का विवरण दिया गया है । ये दोनों गाथायें एवं इनमें उल्लेखित ज्ञाता के उन्नीस अध्ययन आज भी श्वेताम्बर परम्परा में मान्य ज्ञाताधर्मकथा में मिलते हैं । मात्र दो-तीननामों में अन्तर है, वह भेद भी लिपिदोष से हुआ होगा
प्रस्तुत ग्रन्थ का उल्लेखउक्कोडणाग-कुम्मडय-रोहिणी-सिस्स-तूब-संधादे । मादंगिमल्लि चंदिम तावद्देवय तिक तजाय किण्णे य ॥ १ ॥ सुसुकेय-अवरकंके-णंदीफलमुदग जाह मंडूके । एत्तो य पुण्डरीगो णाहज्झाणाणि उगुवीसं ।। २ ।।
-प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयो पृ० ५१ भाषा की दृष्टि से यह पाठ अशुद्ध है। ज्ञातासूत्र का उल्लेख इस प्रकार हैउक्खित्तणाए संघाडे अंडे कुम्मे य सेलगे। तुम्बे य रोहिणी मल्लो माइंदी चंदिमाइ य ॥ १ ॥ दावद्दवे उदग णाए, मंडुक्के तेयली वि य । णंदिफले अमरकंका आहण्णे सुसमाई य ॥ २॥ अवरे य पुण्डरीए णामा एगूणवीसइमे-ज्ञाताधर्मकथा ११
ज्ञातव्य है कि ज्ञाताधर्मकथा के मल्लि अध्ययन में मल्लितीर्थंकर का स्त्री रूप में उल्लेख है । अतः यह अध्ययन उसी परम्परा को मान्य हो सकता था, जो स्त्री-तीर्थंकर और स्त्री-मक्ति की अवधारणा को मान्य करती हो। यह स्पष्ट है कि यापनीय हो एक ऐसा सम्प्रदाय रहा है जो आगमों को और स्त्रीमुक्ति को मान्य करते थे, अतः सिद्ध है कि यह प्रतिक्रमणसूत्र यापनीय परम्परा का है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि टीकाकार के काल तक ज्ञाताधर्मकथा के अध्ययन अध्यापन की प्रवृति यापनीय परम्परा में विलुप्त हो चुकी थी, अतः कुछ कथाओं के सन्दर्भ में उनकी व्याख्याएँ भ्रान्त है । साथ ही उन्होंने ज्ञाता के उन्नीस अध्यायों के सन्दर्भ . में अन्य दो वैकल्पिक मान्यताओं का भी उल्लेख किया है । इसका तात्पर्य
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