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________________ यापनीय साहित्य : १५३ (७) प्रस्तुत ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें श्रमण और श्रमणी के अतिरिक्त देशयति, गृहस्थ और श्राविका के लिये भी प्रायश्चित्तों का विधान है और इस प्रकार यह कल्प, व्यवहार, जीतकल्प आदि की अपेक्षा विकसित ग्रन्थ है । यह कल्प, व्यवहार, निशीथ, जीतकल्प आदि को मान्य करके भी अनेक ऐसे प्रायश्चित्तों का उल्लेख करता है, जिनका उल्लेख इन ग्रन्थों में नहीं है। विशेष रूप से रजस्वला श्रमणी के स्नान, ऋतुकाल में अन्य श्रमणियों से स्पर्श, विभिन्न वर्गों की रजस्वला श्राविकाओं के परस्पर स्पर्श सम्बन्धी प्रायश्चित्त आदि ऐसे नियम हैं, जो ब्राह्मण परम्परा से जैन परम्परा में आये हैं। किन्तु दूसरी ओर इसमें हरित तृण, अंकुर आदि के पादस्पर्श, उन पर मल-मूत्र विसर्जन को भी प्रायश्चित्त का विषय माना गया है, जो इसमें प्राचीन अवधारणा की उपस्थिति का संकेत करता है। वस्तुतः यह कल्प, व्यवहार आदि प्राचीन प्रायश्चित्त ग्रन्थों के आधार पर विकसित ग्रन्थ है और इसलिए इसका यापनीय होना सुनिश्चित है। (८) पुनः इस ग्रन्थ की गाथा २८ में भागवतों, कापालिकों आदि के साथ-साथ श्वेतपट श्रमणों का भी पाषण्ड के रूप में उल्लेख है अतः यह भी निश्चित है कि यह श्वेताम्बर कृति नहीं है। (९) इसमें मूल गुणों और भोजन के अन्तरायों के जो उल्लेख उपलब्ध हैं वे इसे मूलाचार और भगवती आराधना की परम्परा का ग्रन्थ ही सिद्ध करते हैं । अतः इसका यापनीय कृति होना सुनिश्चित है। छेदशास्त्र प्रायश्चित्त संग्रह के अन्तर्गत छेदशास्त्र नामक प्रायश्चित्त सम्बन्धी प्राकृत भाषा का एक अन्य ग्रन्थ भी प्रकाशित हआ है। ग्रन्थ की 'प्रतिज्ञागाथा' में छेदशास्त्र ( छेदसत्थं ) ही नाम मिलता है, किन्तु इसमें नब्बे गाथाएँ होने के कारण इसे 'छेदनवति' भी कहा गया है। इस ग्रन्थ में लेखक के नाम का कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है। अतः इसके लेखक के सम्बन्ध में विचार करना सम्भव नहीं है । जहाँ तक ग्रन्थ की विषयवस्तु का प्रश्न है, वह मुख्यतः 'छेदपिण्ड' पर ही आधारित प्रतीत होती है । इसमें भी २८ मूलगुणों के भंग को आधार बनाकर प्रायश्चित्तों का १. छेदपिण्डम् गाथा, २९८-३०२, ३४३-३५१ । २. पणमिऊण य पंचगुरुं गणहरदेवाण रिद्धिवंताणं । बुच्छामि छेदसत्थं साहूणं सोहणट्ठाणं ।।-छेदशास्त्रम्, १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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