SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय काष्ठादि को दिन अथवा रात्रि में बिना प्रतिलेखना किये ग्रहण करता है अथवा उनका चालन करता है उसके लिए कल्प व्यवहार में प्रायश्चित पञ्चक कहे गये हैं। इसी प्रकार गाथा २११ में कहा गया है कि दिये गये प्रायश्चित्त को लेते हुए यदि रोग के कारण कोई अन्तराल आता है तो वह भी कल्प-व्यवहार के अनुसार प्रायश्चित्त पञ्चक के योग्य होता है। पुनः गाथा २१३ में कहा गया है कि यदि पूर्व में दिये गये प्रायश्चित्त को कोई बीच में छोड़ देता है तो कल्प-व्यवहार में यह कहा गया है कि उसे भी गुरु के द्वारा प्रायश्चित्त पञ्चक दिया जाना चाहिए । पुनः गाथा २२५ में कहा गया है कि वर्द्धमान के तीर्थ में कल्प और व्यवहार में छः माह से अधिक तप, प्रायश्चित नहीं कहा गया है इसलिए उनको छः माह का प्रायश्चित्त ही देना चाहिए। इस तथ्य को जीतकल्प में भी प्रतिपादित किया गया है। पिण्डछेद शास्त्र में व्यवहार, बृहत्कल्प, निशीथ और जीतकल्प का पद-पद पर यह अनुसरण यही सूचित करता है कि यह यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है । क्योंकि दिगम्बर परम्परा में इन ग्रन्थों को कभी मान्यता प्रदान नहीं की गई और न कोई भी दिगम्बर आचार्य इनकी प्रमाणता का ही कोई उल्लेख ही करता है। (६) छेदपिण्ड में मास गुरु, मास लघु, अचाम्ल (आयम्बिल ), निर्विकृति, क्षमा-श्रमण (खमासना ) आदि प्रायश्चित्तों के जो प्रकार वर्णित हैं, वे श्वेताम्बर आगम साहित्य में ही उपलब्ध होते हैं, दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में इनका उल्लेख मुझे देखने को नहीं मिला। क्योंकि यापनीय कल्प, व्यवहार आदि श्वेताम्बर आगमों को मान्य करते थे अतः छेदपिण्ड यापनीय ग्रन्थ ही सिद्ध होता है। १. विडि तिण कळं वा रादो व दिया व अप्पडिलिहित्ता । गेण्हतो चालतो पणयरिहो कप्प ववहारे ।।-छेदपिण्डम्, २०८। २. पायच्छित्तं दिण्णं कूव्वंतो जदा अंतरिज्ज रोगेण । तो जीरोगो संतो पणयरिहो कप्पववहारे ।।-छेदपिण्डम्, २११ । ३. पुज्वपदिण्णं पायच्छित्तं छंडाविऊण पणयंतु । दायत्रमेव गुरुणा इय भणियं कप्पववहारे ।--छेदपिण्डम्, २१३ । ४. कप्पववहारे पुण छम्मासेहिं परं तु णत्थितवो । ___ इह वड्ढमाणतित्थे तेण य छम्मासियं दिण्ण ॥ -छेदपिण्डम्, २२५। ५. जीतकल्प, १९३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy