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________________ १५४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय विधान किया गया है। प्रायश्चित्तों का स्वरूप और उनके नाम वही हैं, जो हमें छेदपिण्ड में मिलते हैं। इसकी अनेक गाथाएँ भी छेदपिण्ड में मिलती हैं। यदि इसे छेदपिण्ड का ही एक संक्षिप्त रूप कहा जाये, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका के प्रायश्चित्तों का संक्षिप्त विवेचन उपलब्ध है। इस ग्रन्थ की परम्परा का निश्चय करना कठिन है क्योंकि इसमें ऐसा कोई भी स्पष्ट संकेत उपलब्ध नहीं है, जिससे इसे यापनीय परम्परा का ग्रन्थ कहा जा सके। किन्तु यदि छेदपिण्ड यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है और उसी के आधार पर इस छेदशास्त्र की रचना हुई है, तो यह कहा जा सकता है कि यह भी यापनीय परम्परा का ग्रन्थ रहा होगा। पुनः ग्रन्थ के अन्त में ग्रन्यकार का यह कथन कि पूर्व आचार्यों द्वारा निर्मित ग्रन्थों का सम्यक अध्ययन करके यह ग्रन्थ बनाया गया है फिर भी इसमें जो आगम विरुद्ध हो, छेदज्ञ अर्थात् छेदशास्त्र के ज्ञाता उसे निकाल दें या आगमानुसार उसकी पूर्ति करें ।२ ग्रन्थकार के इस कथन से यह सिद्ध होता है कि छेदसूत्र आदि आगमों का प्रामाण्य उसे स्वीकार्य है। यह इसके यापनीय होने का आधार कहा जा सकता है। पुनः इसमें रात्रि-भोजन सम्बन्धी प्रायश्चित्त का पंचमव्रत के प्रायश्चित्त के बाद उल्लेख, आर्यिकाओं के प्रायश्चित्तों का अलग से उल्लेख आदि कुछ ऐसे संकेत हैं जो इसे यापनीय कृति सिद्ध करते हैं। अपराजितसूरि को विजयोदयाटीका ___ अपराजितसूरि की 'भगवती-आराधना' की 'विजयोदयाटोका' भी यापनीय परम्परा की है। पूर्व में हम इस तथ्य को बहुत ही स्पष्टता के साथ सिद्ध कर चुके हैं कि भगवतीआराधना यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है। यद्यपि यापनीय परम्परा के कुछ ग्रन्थ, जैसे षट्खण्डामम, कषायपाहुड, पर धवला, जयधवला आदि दिगम्बर परम्परा के विद्वानों ने भी टोकाएँ लिखी हैं, किन्तु भगवतीआराधना की अपराजितसूरि की यह विजयो१. पायच्छित्तं छेदो मलहरणं पावणासणं सोही । पुण्ण पवित्तं पावणमिदि पायच्छित्तनामाइं ॥-छेदपिण्डम्, ३ तुलनीयपायच्छित्तं सोही मलहरणं पावणासणं छेदो । पज्जाया मूलगुणं मासिय संठाण पंचकल्लाणं ।-छेदशास्त्रम्, २ २. पुवायरियकयाणि य आलोचित्ता मया समृदिट्ठा । जं बागमे विरुवं अवणिय पूरं तु छेवर।।-वशास्त्रम्, ९२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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