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________________ १४४ : बैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय का उल्लेख हुआ है, किन्तु मूल ग्रन्थ के कर्ता ये इन्द्रनन्दि कौन थे यह विचारणीय है। दिगम्बर परम्परा में नीतिसार नामक ग्रन्थ के कर्ता के रूप में इन्द्रनन्दि का उल्लेख मिलता है, लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या ये इन्दनन्दि वही हैं जो कि नीतिसार के रचयिता हैं। इन्द्रनन्दि ने अपने नीतिसार में पंच जैनाभासों की चर्चा की है, जिसमें श्वेताम्बर, यापनीय, द्रविड़ संघ, काष्ठासंघ और माथुरसंघ का समावेश है। इससे स्पष्ट है कि ये इन्द्रनन्दि इन पाँचों परम्पराओं से भिन्न मूल संघ से सम्बद्ध होना चाहिए, किन्तु ग्रन्थ के स्वरूप को देखते हुए यह स्पष्ट लगता है कि यह ग्रन्थ मूल संघ का नहीं है । क्योंकि इसमें कल्प-व्यवहार आदि श्वेताम्बर आगमों का न केवल उल्लेख है अपितु प्रायश्चित्त के सन्दर्भ में उन्हें प्रमाण भी माना गया है । ग्रन्थ 'श्रमणी' का भी स्पष्ट रूप से उल्लेख करता है और कहता है कि श्रमणियों के लिए वे ही प्रायश्चित हैं जो श्रमणों के लिए हैं। श्रमणियों के लिए मात्र पर्याय-छेद, मूल, परिहार, दिनप्रतिमा और त्रिकाल योग नामक प्रायश्चित्तों का निषेध है। इससे यह फलित होता है कि इस ग्रन्थ के कर्ता यापनीयों को जैनाभास कहने वाले इन्द्रनन्दी नहीं माने जा सकते; इसके विपरीत अन्य संभावना हो सकती है कि इस ग्रन्थ के कर्ता इन्द्रनन्दी, यापनीय नन्दीसंघ के कोई इन्द्रनन्दी रहे हों और बाद में भ्रान्ति से नीतिसार और छेदपिण्ड प्रायश्चित्त के कर्ता को एक मान लिया गया हो क्योंकि जो परम्परा मूलसंघ को छोड़कर अन्य सभी को जैनाभास कह रही हो वह अपने ग्रन्थों में उनके विचारों का संग्रह केसे करती ? नीतिसार और श्रुतावतार के कर्ता इन्द्रनन्दि का समय दसवीं शताब्दी है, जबकि प्रस्तुत ग्रन्थ भाषा और विषय दोनों की दृष्टि से दसवीं शताब्दी के पूर्व का तो निश्चित ही है। यह संभव है कि जब ग्रन्थकार स्वयं ग्रंथ की ३३३ गाथाओं का उल्लेख कर रहा है, तो ३६१ गाथाओं की उपस्थिति, इस बात को सूचक है कि कुछ गाथाएँ बाद में जोड़ी गयी है और इस जोड़नेवाले ने कर्ता के रूप में अपना नाम दे दिया है । यद्यपि अभी तक ग्रन्थ को जितना कुछ देखा है उससे स्पष्ट १. भावेइ छेदपिंडं जो एवं इंदणंदिगणिरचिदं।-छेदपिण्ड ३६१ २. एवं दसविधपायच्छितं भणियं तु कप्पववहारे। जीदम्मि पुरिसभेदं गाउं दायव्वमिदि भणियं ॥-छेदपिण्ड २८८ ३. जं समणाणं वृत्तं पायच्छितं तहज्जमाचरणं। तेसिं चेव पउत्तं तं समणीणंपि गायव्वं ।।-छेदपिण्ड ८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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