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________________ यापनीय साहित्य : १४३ पिण्डछेदशास्त्र अचेल परम्परा में छेद पिण्ड नामक एक प्रायश्चित्त ग्रन्थ रहा है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन माणिकचन्द दिगम्बर ग्रन्थमाला के १८वें ग्रन्थ के रूप में 'प्रायश्चित्तसंग्रह' के अन्तर्गत हुआ है । ग्रन्थ के प्रारम्भ की मूल गाथाओं में तो कर्ता का नाम नहीं दिया गया है किन्तु ग्रन्थ के अन्तिम गाथा में यह कहा गया है कि जो व्यक्ति इन्द्रनन्दि द्वारा रचित इस छेदपिण्ड से भावित होता है, वह लोक और लोकोत्तर व्यवहार में कुशल होता है । इस अन्तिम समापन गाथा के बाद सम्भवतः लिपिकार ने अपनी ओर से एक गाथा जोड़ी है और उसमें कहा है कि सज्जनों के मल का हरण करने वाला इन्द्रनन्दि के द्वारा विरचित यह ग्रन्थ उनके प्रति भक्तिपूर्वक सम्यक् प्रसन्नचित्त से लिखा गया है। ग्रन्थ मुलतः शौरसेनी प्राकृत में है और उसमें मूलतः आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय (आलोचना और प्रतिक्रमण ) विवेक, व्युत्सर्ग ( कायोत्सर्ग ) तप, छेद, मल, परिहार एवं पारंचिक-इन दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का और उन प्रायश्चितों से सम्बन्धित अपराधों का अर्थात् पंचमहाव्रतों, रात्रिभोजननिषेध, पञ्चसमिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, केशलोच, षडावश्यक आचेल्य ( नग्नता ), अस्नान, अदंत धावन, भूमि-शयन, स्थित-भोजनएक समय भोजन-इन अट्ठावीस मूलगुणों और अनेक उत्तर-गुणों के उल्लंघन संबंधी दोषों का विस्तृत विवेचन है । ग्रन्थ की कुल गाथाएँ ३६१ और श्लोक परिमाण ४२० हैं । ग्रन्थकार द्वारा निर्दिष्ट गाथाओं की संख्या ३३३ हैं, किन्तु उपलब्ध ग्रन्थ में ३६१ गाथाएं दी गई हैं। इससे यह स्पष्ट है कि ग्रन्थ में बाद में लगभग २८ गाथाएँ जोड़ दी गई हैं । अचेल परम्परा के प्रायश्चित्त विषयक ग्रन्थों में इसका स्थान महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः श्वेताम्बर परम्परा में जो स्थान छेदसूत्रों का है वही स्थान अचेल परम्परा में इस छेद-पिण्ड का है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में अरहंत को नमस्कार करके छेदपिण्ड प्रायश्चित्त को मैं कहूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा के द्वारा ग्रन्थ का पूरा नाम 'छेदपिण्ड प्रायश्चित्त'२ ऐसा होगा, यह माना जा सकता है । यद्यपि ग्रन्थ की अन्तिम गाथा में ग्रन्थकर्ता के रूप में इन्द्रनन्दि १. चउरसयाइं बीसुत्तराई गंथस्स परिमाणं । तेतीसुत्तरतिसयपमाणं गाहा णिबद्धस्स ॥ -छेदपिण्डं, ३६० २. विच्छिण कम्मबंधे, णिच्छयणयस्सिऊण अरहते । वोच्छामि छेदपिण्डं पायच्छित्त पणमिऊणं ॥-छेदपिण्ड १ - - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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