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________________ २४२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय अधिक सन्तोषजनक नहीं लगती। दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि धर्मकथा से तात्पर्य 'नायधम्मकहा' से तो नहीं है ? यह सर्वमान्य है कि 'नायधम्मकहा' की विषय-वस्तु धर्मकथानुयोग से सम्बन्धित है, इस विकल्प को स्वीकार करने में केवल एक ही कठिनाई है कि कुछ अंग-आगम भी अस्वाध्याय काल में पढ़े जा सकते हैं-यह मानना होगा । एक और 'विकल्प हो सकता है धर्मकथा से तात्पर्य कहों पउमचरियं आदि ग्रन्थ से तो नहीं है, लेकिन यह कल्पना ही है। मेरी दृष्टि में तो 'धम्मकहा' से मूलाचार का तात्पर्य 'नायधम्मकहा' से होगा । मूलाचार में उपर्युक्त ग्रंथों के अतिरिक्त 'आयारकप्प' और 'जीदकप्प' ऐसे दो ग्रंथों की और सचना मिलती है अतः इनके सम्बन्ध में भी विचार कर लेना आवश्यक है । श्वे. परम्परा में मान्य आगमों में छेद सूत्रों के अन्तर्गत आचारकल्प (दशाश्रुतस्कन्ध = आचारदशा) और जीतकल्प का उल्लेख उपलब्ध होता है। यापनीय परम्परा के एक अन्य ग्रंथ छेदशास्त्र में भी प्रायश्चित्त के सन्दर्भ में आचारकल्प और जीतकल्प का उल्लेख उपलब्ध होता है, यह स्पष्ट है कि आचारकल्प और जीतकल्प मुनि जीवन के आचार-नियमों तथा उनसे सम्बन्धित प्रायश्चित्तों का वर्णन करते हैं । पंचाचाराधिकार में तपाचार के सन्दर्भ में जो इन दो ग्रंथों का उल्लेख है वे वस्तुतः श्वे० परम्परा में मान्य आचारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) और जीतकल्प ही हैं। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि दिगम्बर आचार्यों ने यापनीय परम्परा के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहा है कि वे 'कल्पसूत्र' का वाञ्चन करते हैं । स्मरण रहे कि आचारकल्प का आठवाँ अध्ययन पर्यषण-कल्प के नाम से प्रसिद्ध है और आज भी पर्युषण पर्व के अवसर पर श्वे० परम्परा में उसका वाञ्चन होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मूलाचार में जिन ग्रंथों का निर्देश किया गया है, लगभग वे सभी ग्रंथ आज भी श्वे० परम्परा में मान्य और प्रचलित हैं, उससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि आगमिक ग्रन्थों के सन्दर्भ में मूलाचार की परम्परा श्वे० परम्परा के निकट है। यापनियों के सन्दर्भ में यह स्पष्ट है कि वे श्वे० परम्परा में मान्य आगम साहित्य को मान्य करते थे । यह हम पूर्व में भी सूचित कर चुके हैं कि उत्तर भारत के निग्रंथ संघ में जिन ग्रन्थों का निर्माण ई० सन् की दूसरी शती तक हुआ था उसके · उत्तराधिकारी श्वे० और यापनीय दोनों ही रहे हैं अतः मूलाचार में श्वे० परम्परा में मान्य ग्रंथों का उल्लेख यही सिद्ध करता है कि वह यापनीय . परम्परा का ग्रंथ है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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