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यापनीय साहित्य : १४१ है-ऐसा ज्ञात नहीं होता है । जबकि श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णकों के अन्तर्गत ही आउरपच्चक्खाण और महापच्चक्खाण नामक दो ग्रन्थ हैं। अतः स्पष्ट है कि पच्चक्खाण से मूलाचार का तात्पर्य आउरपच्चक्खाण तथा महापच्चक्खाण नामक ग्रन्थों से ही है । मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दी ने इसे स्पष्ट नहीं किया है। केवल इतना ही कहकर छोड़ दिया है कि त्रिविध एवं चतुर्विध परित्याग का प्रतिपादक ग्रन्थ-किन्तु ऐसा कोई ग्रन्थ श्वेताम्बर या दिगम्बर परम्परा में रहा है-ऐसा ध्यान में नहीं आता। जब मूलाचार में आउरपच्चक्खाण की ही ७० गाथायें मिल रही हैं इसके अतिरिक्त महापच्चक्खाण की भी गाथायें थी उसमें है हीइससे यही सिद्ध होता है कि पच्चक्खाण से मूलाचारकार का तात्पर्य आउरपच्चक्खाण और महापच्चक्खाण से ही है।
आवसय या आवश्यक से मूलाचारकार का तात्पर्य किस ग्रन्थ से हैयह भी विचारणीय है। टीकाकार वसुनन्दी ने केवल इतना निर्देश दिया है कि आवश्यक से तात्पर्य सामायिक आदि षड्-आवश्यक कार्यों का प्रतिपादक ग्रन्थ । दिगम्बर परम्परा में इस नाम का भी कोई ग्रन्थ नहीं रहा है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा में आवश्यक नामक स्वतन्त्र ग्रंथ प्राचीन काल से उपलब्ध है और उसकी गणना आगम ग्रन्थ के रूप में की गई है। अतः स्पष्ट है कि मूलाचारकार का आवश्यक से तात्पर्य श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आवश्यकसूत्र से ही है।
अन्तिम ग्रन्थ जिसका इस गाथा में उल्लेख है, वह धर्मकथा है। यह बात निश्चय ही विचारणीय है कि धर्मकथा से ग्रन्थकार का तात्पर्य किस प्रन्थ से है। दिगम्बर परम्परा में धर्मकथानुयोग से जो पुराण आदि साहित्य उपलब्ध हैं, वे किसी भी स्थिति में मूलाचार के पूर्ववर्ती नहीं हैं। टीकाकार वसुनन्दी ने धर्मकथा से त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र आदि का जो तात्पर्य लिया है, वह तब तक ग्राह्य नहीं बन सकता जब तक कि त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र का विवेचन करने वाले मूलाचार से पूर्व के कोई ग्रंथ हों । जब हम त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र से सम्बन्धित ग्रंथों को देखते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सभी ग्रन्थ मूलाचार के परवर्ती ही हैं । अतः यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहता है कि धर्मकथा से मूलाचार का क्या तात्पर्य है ? इसके उत्तर के रूप में हमारे सामने दो विकल्प हैंया तो हम यह माने कि मूलाचार की रचना के पूर्व भी कुछ चरित ग्रन्थ रहे होंगे जो धर्मकथा के नाम से जाने जाते होंगे, किन्तु यह कल्पना
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